सौन्दर्य और सन्यास
हिन्दी साहित्य में आचार्य
चतुरसेन की ख्याति ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखे कई उपन्यासों से है जिनमें तत्कालिन
भारतीय समाज की परिस्थितियों का भिन्न-भिन्न पहलुओं का विवरण मिलता है। इनके उपन्यास पर चित्रलेखा नामसे फिल्म भी बन चुकी है। इस फिल्म की नायिका चित्रलेखा का
अभिनय मीनाकुमारी ने किया है और सन्यासी कुमारगिरि का अभिनय अशोक कुमार ने। यह कथा
भोग (काम) और योग (सन्यास) के परस्पर विपरीत पार्श्वों में झूलती भी है और दोनों
में सामंजस्य भी स्थापित करती है।
वह अपने समय की विख्यात राजनर्तकी थी और दरबार की सम्मानित सदस्या। आज जैसे मंत्री-परिषद हुआ करता है, वैसे ही ये दरबार के सदस्य हुआ करते थे। उस समय नारी-जाति से कोई भेदभाव
नहीं किया गया जो चित्रलेखा की कथा से प्रमामित होता है।
ये दरबारी अपने-अपने क्षेत्र के उत्कट् विद्वान हुआ करते थे। आम्रपाली नृत्यकला की विदुषी, अगाध रूप-सौन्दर्य की स्वामिनी थी। साथ ही भारतीय सेक्सोलॉजी की विशारद थी, इसका कोई घृणित अर्थ नहीं निकाला जाए, क्योंकि भारतीय काम-विज्ञान आरम्भ से ही आध्यात्मिक विषय रहा है। इस विषय में प्रवीणता ने उसकी आध्यात्मिक-शक्ति को श्री-सम्पन्न किया था जिसका प्रमाण सन्यासी कुमारगिरि के आगमन से मिलने लगता है।
सन्यासी
कुमारगिरि अपने समय के प्रसिद्ध हठयोगी थे। वे स्त्रियों के स्पर्श से भी बचे रहने का दावा किया करते थे। राजा ने उस तपस्वी को ब्रह्मज्ञान का अधिकारी समझ दरबार में सबसे ऊँचा सम्मान दिया। सन्यासी ने अपने को इस योग्य सिद्ध करने के लिए एक दिन सबके समक्ष भरे दरबार भगवान को प्रकट दिखाने का दावा किया। राजा और दरबारी विस्मयमुग्ध रह गये, क्योंकि उन्हें लगा कि सच
में उन सबके सामने पीताम्बरधारी श्गरीविष्वाण खड़े हैं। लेकिन, यह तपस्या-बल से
अर्जित हिप्टोनिज्म की माया थी, वास्तविकता नहीं। कुमारगिरि की माया आम्रपाली की आँखों को
धोखा नहीं दे सकीं। स्सवयं को योगबल के सर्वोच्च अधिकारी मानने वाले कुमारगिरि उस नारी के समक्ष पराजित थे जिसे भोग की स्वामिनी कहकर वे अपमानित करने की चेष्टा कर चुके थे। यहाँ काम-विज्ञान की आध्यात्मिक-शक्ति योग-विज्ञान की शक्ति से प्रतिस्पर्धा लेते हुए स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध कर रही थी।
पाश्चात्यवादी विद्वान काम को इन्द्रिय-आधारित संवेग और उत्तेजना मानते हैं, जबकि भारतीय ज्ञान-विज्ञान इसे मन-आधारित शक्ति और आनन्द का स्वरूप मानता है--कामस्तदग्रे समवर्त्तताधि मनसो रेतः प्रथमं तदासीत् (नासदीय सूक्त)। इसमें बताया है कि मन की जो बीज-शक्शति है, वह मन के ठीक केन्द्र-विन्दु पर स्थित रहती है और उसी का नाम काम है।
इसलिए, मन को एकाग्र करने से ज्यों-ज्यों मन जाग्रत होता है, उसकी केन्द्र-शक्ति जाग्रत होने लगती है और मन सम्पूर्ण शरीर को जिस आनन्द की अनुभूति कराने लगता है, वह कामानन्द है। योग-सिद्धि में भी योगी अपने ध्मयान को एकाग्र करता है जिससे उसके मन की चंचलता दूर होती है। विदित हो कि शाँत अर्थात् शुद्ध चित्त के आनन्द को सच्चिदानन्द कहते हैं। यह तो उसी कामानन्द का नाम है। कोई योगी यह कहे कि काम अध्यात्म नहीं भोग है, तो या तो वह अपनी योग-विद्या में अपूर्ण है, या झूठी आत्म-प्रशंषा करता है।
काम की इन्द्रियजनित अनुभूति और काम की इन्द्रियातीत अनुभूति का अन्तर नहीं समझने वाले कुमारगिरि-जैसे हठयोगी भी होते हैं जो अपने को श्रेष्ठ बताने के लिए स्त्री-शक्ति को काम और भोग का कारक मानकर घृणा फैलाते हैं। स्त्री को कामिनी कहा गया है, इसलिए नहीं कि वह पुरुष को काम-वासना की ओर धकेलती है, बल्कि इसलिए कि उसमें मन को एकाग्र कर उसकी केन्द्र-शक्तिरूप (काम) को जगाने वाली शक्ति है और इस रूप में वह पुरुष के योगबल को मुक्कमल बनाती है।
इसलिए, मन को एकाग्र करने से ज्यों-ज्यों मन जाग्रत होता है, उसकी केन्द्र-शक्ति जाग्रत होने लगती है और मन सम्पूर्ण शरीर को जिस आनन्द की अनुभूति कराने लगता है, वह कामानन्द है। योग-सिद्धि में भी योगी अपने ध्मयान को एकाग्र करता है जिससे उसके मन की चंचलता दूर होती है। विदित हो कि शाँत अर्थात् शुद्ध चित्त के आनन्द को सच्चिदानन्द कहते हैं। यह तो उसी कामानन्द का नाम है। कोई योगी यह कहे कि काम अध्यात्म नहीं भोग है, तो या तो वह अपनी योग-विद्या में अपूर्ण है, या झूठी आत्म-प्रशंषा करता है।
काम की इन्द्रियजनित अनुभूति और काम की इन्द्रियातीत अनुभूति का अन्तर नहीं समझने वाले कुमारगिरि-जैसे हठयोगी भी होते हैं जो अपने को श्रेष्ठ बताने के लिए स्त्री-शक्ति को काम और भोग का कारक मानकर घृणा फैलाते हैं। स्त्री को कामिनी कहा गया है, इसलिए नहीं कि वह पुरुष को काम-वासना की ओर धकेलती है, बल्कि इसलिए कि उसमें मन को एकाग्र कर उसकी केन्द्र-शक्तिरूप (काम) को जगाने वाली शक्ति है और इस रूप में वह पुरुष के योगबल को मुक्कमल बनाती है।
सन्यासी को चित्रलेखा चुनौती देते हुए कहती है कि 'जब आप इस
संसार में आकर संसार को नहीं पा सकते, फिर ईश्वर को कैसे पायेंगे?' इस संदेश का आधार भी अध्यात्म ही है। विदित हो कि हमारा मन ईश्वर की अनुभूति को भी ग्रहण करने की क्षमता रखता है। उसकी अनुभूति को ब्रह्मानन्द कहा जाता है। इसे शास्त्रों में सच्चिदानन्दघनस्वरूप कहा गया है जिसका अर्थ है सच्चिदानन्द (शुद्धमन के आनन्द) का घनीभूतस्वरूप ((compacted mass)। मन शुद्ध तब रहता है जब उस पर केवल उसकी बीज-शक्ति जागृत रहती है। और यह है काम। इसलिए, कामानन्द का घनभूत स्वरूप ही ब्रह्मानन्द है।
इसी
सन्दर्भ से जुड़े एक अहम प्रश्न का जवाब उपन्यासकार चित्रलेखा के माध्यम से देता है। काम का इन्द्रिय-सुख एक वासना है जो शरीराकर्षण पर आधारित होता है और इसमें नैतिकता नहीं होती। उसका प्रेमी
बीजगुप्त उससे पूछता है--क्या प्रेम पाप है? वह उत्तर देती है कि आत्मा जिसे पाप समझता है, वह पाप है, जिसे पाप नहीं समझता वह पुण्य है। भावार्थ यह है कि शरीर-भोग की इच्छा से किये गये विलास में केवल इन्द्रिय-सुख है, इसे विवेक स्वीकार नहीं करता, इसलिए यह पाप है। लेकिन, प्रेमाकर्षण के बीज मन में होते हैं, इसलिए प्रेमाकर्षण में मिलन विवेकोचित होने के कारण पुण्य है।
सत्य
की पहचान करने की एकमात्र क्षमता विवेकजनित बुद्धि में होती है, क्योंकि विवेक आत्मा की वह शक्ति है जो बुद्धि को सत्य की पहचान से युक्त करती है। इसलिए, विवेकजनित बुद्धि तर्क-वितर्क से परे और निश्चयात्मक होती है--—व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।(गीता,2/41)।। अर्थात् मनुष्य की जो वास्तविक बुद्धि है, वह निश्चयात्मक
(व्यवसायात्मिका) होती है--एक और एक होती है
(बुद्धिरेकेह), क्योंकि वह सभी विकल्पों से परे रहती है। यहाँ जिस निश्चयात्मक बुद्धि के
बारे में श्रीकृष्ण कह रहे हैं, वह 'विवेक' ही है।
आगे
की कहानी में कुमारगिरि वैशाली छोड़कर अपने आश्रम लौट आता है। आम्रपाली कुमारगिरि
के सन्यासी जीवन से प्रेरणा लेती है तो उसे मान-सम्मान और भोग-ऐश्वर्य का जीवन
व्यर्थ लगने लगता है। वह कुमारगिरि से सन्यास की दीक्षा लेने अकेले और पैदल ही
उसके आश्रम की ओर चल पड़ती है। वहाँ पहुँचते-पहुँचते थककर क्लान्त हो जाती है और
आश्रम के सामने गिर पड़ती है। कुमारगिरि को विवशता में आम्रपाली-जैसी सुन्दरी को
अपनी बाँहों में सम्हालना पड़ता है।
कुमारगिरि
का मन भी क्षणमात्र के लिये उस अप्रतिम सौन्दर्य के स्पर्श से रोमांचित हो उठता
है, लेकिन वह स्वयं को नियन्त्रित कर लेता है। इस स्पर्श से जिस रोमांच की अनुभूति
उसे हुई, वह अप्रत्याशित नहीं, बल्कि स्वाभाविक थी, क्योंकि यही प्रकृति का नियम
है। इसके बावजूद भी उसके विवेक ने इसे निष्पाप अनुभूति के रूप में स्वीकार नहीं
किया। कारण स्पष्ट है कि उसने अपने योगहठ के कारण काम को घृणित और त्याज्य समझ रखा
था और नारी-शरीर को काम का वास मानता था। उससे शारीरिक पाप भले न हुआ हो, वह
मानसिक पाप का शिकार तो हो ही गया। परिणामस्वरूप उसने गंगानदी में शरीर त्याग कर
लेने की ठान ली और भगवती गंगा का आह्वान करते हुए नदी की ओर बढ़ने लगा।
आम्रपाली
को जब चेतना आई तो वह समझ गई कि कुमारगिरि उसके स्पर्श के कारण आत्मग्लानि से भर
चुका है। वह जानती थी कि उसने कोई पाप नहीं किया है, फिर भी कुमारगिरि की स्थिति
के लिए उसने स्वयं को जिम्मेवार माना। वह भी शरीर त्याग की नीयत से गंगा नदी की ओर
बढ़ी। गंगा नदी उफनती-दौड़ती उनकी ओर बढ़ रही थी। कुमारगिरि आगे-आगे थे, लेकिन
गंगा उसे अपनी जलधारा में लेती, एक सर्प ने उसे डँस लिया। कुमारगिरि और आम्रपाली
दोनों को ही गंगा की धारा बहा कर ले गई, लेकिन इसके पूर्व ही कुमारगिरि की मौत
सर्प-दंश से हो चुकी थी। यह भोग की स्वामिनी के आगे योग के स्वामी की पराजय थी।
इसप्रकार, यदि काम और योग को एक ही तराजू पर रखा जाए, तो भी काम को कमतर सिद्ध
करना असम्भव-सा है।
यह
प्रसंग विवेक का महत्व समझ में आता है। विवेक की आवश्यकता न केवल भोग के लिए है,
बल्कि योग के लिए भी। विवेकहीन योग अहंकार का कारण हो जाता है। यह अहंकार ही घृणा
को जन्म देता है। नारी को शरीर को भोग का वास मान लेना एक योगी का अहंकार है,
क्योंकि नारी एक शक्ति है, भोग की वस्तु नहीं। यह शक्ति सत्यात्मक है, क्योंकि
उसके रूप-सौन्दर्य में आनन्ददायक आकर्षण है। सत्यम् शिवम् सुन्दरं का वैदिक
सिद्धान्त बताता है कि जहाँ आनन्द है, वहीं सुन्दरता का आभास है। आनन्द की स्थिति
वहीं है जहाँ कल्याण (शिवम्) है। कल्याण वहीं है, जहाँ सत्य है। इसलिए, नारी-शक्ति
में सत्य अन्तर्निहित है, क्ल्याण अन्तर्निहित है, इसलिए वह सुन्दर प्रतीत होती
है। इससे घृणा करना योगबल और ज्ञान का अपमान है।
रमाशंकर जमैयार,
वीरपुर, सुपौल, बिहार।