शनिवार, 30 जुलाई 2011

सौन्दर्य और सन्यास


                                        सौन्दर्य और सन्यास  
                 हिन्दी साहित्य में आचार्य चतुरसेन की ख्याति ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखे कई उपन्यासों से है जिनमें तत्कालिन भारतीय समाज की परिस्थितियों का भिन्न-भिन्न पहलुओं का विवरण मिलता है। इनके उपन्यास पर चित्रलेखा नामसे फिल्म भी बन चुकी है। इस फिल्म की नायिका  चित्रलेखा का अभिनय मीनाकुमारी ने किया है और सन्यासी कुमारगिरि का अभिनय अशोक कुमार ने। यह कथा भोग (काम) और योग (सन्यास) के परस्पर विपरीत पार्श्वों में झूलती भी है और दोनों में सामंजस्य भी स्थापित करती है।
वह अपने समय की विख्यात राजनर्तकी थी और दरबार की सम्मानित सदस्या। आज जैसे मंत्री-परिषद हुआ करता है, वैसे ही ये दरबार के सदस्य हुआ करते थे। उस समय नारी-जाति से कोई भेदभाव नहीं किया गया जो चित्रलेखा की कथा से प्रमामित होता है।
ये दरबारी अपने-अपने क्षेत्र के उत्कट् विद्वान हुआ करते थे। आम्रपाली नृत्यकला की विदुषी,  अगाध रूप-सौन्दर्य की स्वामिनी थी। साथ ही भारतीय सेक्सोलॉजी की विशारद थी, इसका कोई घृणित अर्थ नहीं निकाला जाए, क्योंकि भारतीय काम-विज्ञान आरम्भ से ही आध्यात्मिक विषय रहा है। इस विषय में प्रवीणता ने उसकी आध्यात्मिक-शक्ति को श्री-सम्पन्न किया था जिसका प्रमाण सन्यासी कुमारगिरि के आगमन से मिलने लगता है।
  सन्यासी कुमारगिरि अपने समय के प्रसिद्ध हठयोगी थे। वे स्त्रियों के स्पर्श से भी बचे रहने का दावा किया करते थे। राजा ने उस तपस्वी को ब्रह्मज्ञान का अधिकारी समझ दरबार में सबसे ऊँचा सम्मान दिया। सन्यासी ने अपने को इस योग्य सिद्ध करने के लिए एक दिन सबके समक्ष भरे दरबार  भगवान को प्रकट दिखाने का दावा किया। राजा और दरबारी विस्मयमुग्ध रह गये, क्योंकि उन्हें लगा कि  सच में उन सबके सामने पीताम्बरधारी श्गरीविष्वाण खड़े हैं। लेकिन, यह तपस्या-बल से अर्जित हिप्टोनिज्म की माया थी, वास्तविकता नहीं। कुमारगिरि की माया आम्रपाली की आँखों को धोखा नहीं दे सकीं। स्सवयं को योगबल के सर्वोच्च अधिकारी मानने वाले कुमारगिरि उस नारी के समक्ष पराजित थे जिसे भोग की स्वामिनी कहकर वे अपमानित करने की चेष्टा कर चुके थे। यहाँ काम-विज्ञान की आध्यात्मिक-शक्ति योग-विज्ञान की शक्ति से प्रतिस्पर्धा लेते हुए स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध कर रही थी। 
पाश्चात्यवादी विद्वान काम को इन्द्रिय-आधारित संवेग और उत्तेजना मानते हैं, जबकि भारतीय ज्ञान-विज्ञान इसे मन-आधारित शक्ति और आनन्द का स्वरूप मानता है--कामस्तदग्रे समवर्त्तताधि मनसो रेतः प्रथमं तदासीत् (नासदीय सूक्त)। इसमें बताया है कि मन की जो बीज-शक्शति है, वह मन के ठीक केन्द्र-विन्दु पर स्थित रहती है और उसी का नाम काम है।
इसलिए, मन को एकाग्र करने से ज्यों-ज्यों मन जाग्रत होता है, उसकी केन्द्र-शक्ति जाग्रत होने लगती है और मन सम्पूर्ण शरीर को जिस आनन्द की अनुभूति कराने लगता है, वह कामानन्द है।  योग-सिद्धि में भी योगी अपने ध्मयान को एकाग्र करता है जिससे उसके मन की चंचलता दूर होती है। विदित हो कि शाँत अर्थात् शुद्ध चित्त के आनन्द को सच्चिदानन्द कहते हैं। यह तो उसी कामानन्द का नाम है। कोई योगी यह कहे कि काम अध्यात्म नहीं भोग है, तो या तो वह अपनी योग-विद्या में अपूर्ण है, या झूठी आत्म-प्रशंषा करता है।   
काम की इन्द्रियजनित अनुभूति और काम की इन्द्रियातीत अनुभूति का अन्तर नहीं समझने वाले कुमारगिरि-जैसे हठयोगी भी होते हैं जो अपने को श्रेष्ठ बताने के लिए स्त्री-शक्ति को काम और भोग का कारक मानकर घृणा फैलाते हैं। स्त्री को कामिनी कहा गया है, इसलिए नहीं कि वह पुरुष को काम-वासना की ओर धकेलती है, बल्कि इसलिए कि उसमें मन को एकाग्र कर उसकी केन्द्र-शक्तिरूप (काम) को जगाने वाली शक्ति है और इस रूप में वह पुरुष के योगबल को मुक्कमल बनाती है।
   सन्यासी को चित्रलेखा चुनौती देते हुए कहती है कि 'जब आप इस संसार में आकर संसार को नहीं पा सकते, फिर ईश्वर को कैसे पायेंगे?' इस संदेश का आधार भी अध्यात्म ही है। विदित हो कि हमारा मन ईश्वर की अनुभूति को भी ग्रहण करने की क्षमता रखता है। उसकी अनुभूति को ब्रह्मानन्द कहा जाता है। इसे शास्त्रों में सच्चिदानन्दघनस्वरूप कहा गया है जिसका अर्थ है सच्चिदानन्द (शुद्धमन के आनन्द) का घनीभूतस्वरूप ((compacted mass)। मन शुद्ध तब रहता है जब उस पर केवल उसकी बीज-शक्ति जागृत रहती है। और यह है काम। इसलिए, कामानन्द का घनभूत स्वरूप ही ब्रह्मानन्द है।  
इसी सन्दर्भ से जुड़े एक अहम प्रश्न का जवाब उपन्यासकार चित्रलेखा के माध्यम से देता है।  काम का इन्द्रिय-सुख एक वासना है जो शरीराकर्षण पर आधारित होता है और इसमें नैतिकता नहीं होती। उसका प्रेमी बीजगुप्त उससे पूछता है--क्या प्रेम पाप है? वह उत्तर देती है कि आत्मा जिसे पाप समझता है, वह पाप है, जिसे पाप नहीं समझता वह पुण्य है। भावार्थ यह है कि शरीर-भोग की इच्छा से किये गये विलास में केवल इन्द्रिय-सुख है, इसे विवेक स्वीकार नहीं करता, इसलिए यह पाप है। लेकिन, प्रेमाकर्षण के बीज मन में होते हैं, इसलिए प्रेमाकर्षण में मिलन विवेकोचित होने के कारण पुण्य है। 
सत्य की पहचान करने की एकमात्र क्षमता विवेकजनित बुद्धि में होती है, क्योंकि विवेक आत्मा की वह शक्ति है जो बुद्धि को सत्य की पहचान से युक्त करती है। इसलिए, विवेकजनित बुद्धि तर्क-वितर्क से परे और निश्चयात्मक होती है--—व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।(गीता,2/41)।। अर्थात् मनुष्य की जो वास्तविक बुद्धि है, वह निश्चयात्मक (व्यवसायात्मिका) होती है--एक और एक होती है (बुद्धिरेकेह), क्योंकि वह सभी विकल्पों से परे रहती है। यहाँ जिस निश्चयात्मक बुद्धि के बारे में श्रीकृष्ण कह रहे हैं, वह 'विवेक' ही है। 
आगे की कहानी में कुमारगिरि वैशाली छोड़कर अपने आश्रम लौट आता है। आम्रपाली कुमारगिरि के सन्यासी जीवन से प्रेरणा लेती है तो उसे मान-सम्मान और भोग-ऐश्वर्य का जीवन व्यर्थ लगने लगता है। वह कुमारगिरि से सन्यास की दीक्षा लेने अकेले और पैदल ही उसके आश्रम की ओर चल पड़ती है। वहाँ पहुँचते-पहुँचते थककर क्लान्त हो जाती है और आश्रम के सामने गिर पड़ती है। कुमारगिरि को विवशता में आम्रपाली-जैसी सुन्दरी को अपनी बाँहों में सम्हालना पड़ता है।
कुमारगिरि का मन भी क्षणमात्र के लिये उस अप्रतिम सौन्दर्य के स्पर्श से रोमांचित हो उठता है, लेकिन वह स्वयं को नियन्त्रित कर लेता है। इस स्पर्श से जिस रोमांच की अनुभूति उसे हुई, वह अप्रत्याशित नहीं, बल्कि स्वाभाविक थी, क्योंकि यही प्रकृति का नियम है। इसके बावजूद भी उसके विवेक ने इसे निष्पाप अनुभूति के रूप में स्वीकार नहीं किया। कारण स्पष्ट है कि उसने अपने योगहठ के कारण काम को घृणित और त्याज्य समझ रखा था और नारी-शरीर को काम का वास मानता था। उससे शारीरिक पाप भले न हुआ हो, वह मानसिक पाप का शिकार तो हो ही गया। परिणामस्वरूप उसने गंगानदी में शरीर त्याग कर लेने की ठान ली और भगवती गंगा का आह्वान करते हुए नदी की ओर बढ़ने लगा।
आम्रपाली को जब चेतना आई तो वह समझ गई कि कुमारगिरि उसके स्पर्श के कारण आत्मग्लानि से भर चुका है। वह जानती थी कि उसने कोई पाप नहीं किया है, फिर भी कुमारगिरि की स्थिति के लिए उसने स्वयं को जिम्मेवार माना। वह भी शरीर त्याग की नीयत से गंगा नदी की ओर बढ़ी। गंगा नदी उफनती-दौड़ती उनकी ओर बढ़ रही थी। कुमारगिरि आगे-आगे थे, लेकिन गंगा उसे अपनी जलधारा में लेती, एक सर्प ने उसे डँस लिया। कुमारगिरि और आम्रपाली दोनों को ही गंगा की धारा बहा कर ले गई, लेकिन इसके पूर्व ही कुमारगिरि की मौत सर्प-दंश से हो चुकी थी। यह भोग की स्वामिनी के आगे योग के स्वामी की पराजय थी। इसप्रकार, यदि काम और योग को एक ही तराजू पर रखा जाए, तो भी काम को कमतर सिद्ध करना असम्भव-सा है।
यह प्रसंग विवेक का महत्व समझ में आता है। विवेक की आवश्यकता न केवल भोग के लिए है, बल्कि योग के लिए भी। विवेकहीन योग अहंकार का कारण हो जाता है। यह अहंकार ही घृणा को जन्म देता है। नारी को शरीर को भोग का वास मान लेना एक योगी का अहंकार है, क्योंकि नारी एक शक्ति है, भोग की वस्तु नहीं। यह शक्ति सत्यात्मक है, क्योंकि उसके रूप-सौन्दर्य में आनन्ददायक आकर्षण है। सत्यम् शिवम् सुन्दरं का वैदिक सिद्धान्त बताता है कि जहाँ आनन्द है, वहीं सुन्दरता का आभास है। आनन्द की स्थिति वहीं है जहाँ कल्याण (शिवम्) है। कल्याण वहीं है, जहाँ सत्य है। इसलिए, नारी-शक्ति में सत्य अन्तर्निहित है, क्ल्याण अन्तर्निहित है, इसलिए वह सुन्दर प्रतीत होती है। इससे घृणा करना योगबल और ज्ञान का अपमान है। 
रमाशंकर जमैयार,
वीरपुर, सुपौल, बिहार।       

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

जात-पाँत पूछे नहीं कोय



संत रविदास अपने समय के श्रेष्ठतम संतों में एक थे। वे माने हुए संत थे, परन्तु जाति से चमार थे। फिर भी, समाज में उनकी एवं उनके उपदेशों की विशेष महत्ता थी। वे ज्ञानी थे ही, भाषा में भी निपुण थे। उन्होंने दोहों-पदों के रूप में अपने उपदेशों को व्यक्त किया है। उनके अनेक पदों को गुरुग्रन्थ साहब में भी शामिल किया गया है। उन्होंने सामाजिक भेदभाव को कभी भी धर्मसंगत नहीं माना और न इसके लिए कभी धार्मिक ग्रन्थों को दोषी बताया। वे कहते हैं---‘जात पाँत पूछै नहीं कोय, हरि को भजै सो हरि का होय।’
कई लोग यह अनुमान करते हैं कि जाति के आधार पर रविदासजी को भी अपमान के घूँट सहने पड़े थे, क्योंकि उनके काल में जात-पाँत का भेद बहुत ही बढ़ा हुआ था। इसलिए उन्हें ऐसा उपदेश देना पड़ा। परन्यतु, यह सही नहीं है। यह तो ऋणात्मक सोच और विपरीत बुद्धि की उपज है जिसके आधार पर    इतिहास की वास्तविकता को विकृत किया जाता हैं।
      मुस्लिम-काल के भारतीय संतों का अपना गौरवशाली इतिहास है। संतों की इस परम्परा में गुरु नानक, रविदास, कबीरदास और मीराबाई का नाम अग्रगण्य है। गुरु नानक, रविदास और कबीर दास के गुरु थे रामानन्दजी जो ब्राह्मणवंशी थे। उस समय यदि जातिभेद प्रबल होता तो एक ब्राह्मण गुरु रविदास जैसे चमार और कबीरदास जैसे जुलाहे को अपना शिष्य क्यों बनाता गुरु नानक क्षत्रियवशी थे। उन्होंने स्वयं को भगवान राम का वंशज बताया है, फिर भी रविदास के पदों को गुरुग्रन्थ साहब में शामिल किया गया है। इतना ही नहीं, राजवंश की मीराबाई को गुरु स्वयं संत रविदास थे। इतने महान संत होते हुए भी रविदासजी ने चर्मकारी के वंशानुगत पेशे का त्याग नहीं किया, क्योंकि यह पेशा कभी भी उनकी परेशानी का सबब नहीं बना। उनका निम्नांकित दोहा उनके पेशे से सम्बन्धित है, फिर भी पवित्रता का द्योतक हैमन चंगा तो कठौती में गंगा। कोई स्त्री गंगास्नान को गई थी। वहाँ उसका एक कंगन हाथ से निकलकर गंगाजी में चला गया। वह रोती हुई घर लौट रही थी। रास्ते में रविदास जी बैठे अपने पेशे में लगे थे। उनके काठ की कठौती में चमड़ा धोने के लिये पानी रखा हुआ था। वह स्त्री इस महान संत के सम्मुख आकर अपनी व्यथा सुनाने लगी। रविदासजी ने कठौती में गंगा माता का आह्वान किया और उस कठौती से उस महिला का कंगन निकल आया।  घटना ने मन चंगा तो कठौती में गंगा की उक्ति को प्रमाणित किया। यह घटना यह भी प्रमाणित करता है कि रविदासजी एक सिद्ध संत थे। उन्होंने अपने ही चरित्र से प्रमाणित किया कि जो ईश्वर को भजता है, वही ईश्वर का होता है चाहे वह शूद्रादि जाति का ही क्यों न हो!    
      भारतीय संस्कृति ईश्वरवाद पर आधारित है। जो ईश्वर और उसकी सत्ता को नहीं मानता, उसे नास्तिक कहा जाता है। भारतीय संस्कृति ने सदैव ही नास्तिकता का विरोध किया है। कुछ पंडित-विद्वान ऐसे भी हैं जो स्वयं को धर्मशास्त्री बताते हैं, लेकिन नास्तिकता का प्रचार करते हैं। मुझे स्मरण है कि जब बूटा सिंह केन्द्र सरकार में गृहमंत्री थे, तब एकबार वे जगन्नाथपुरी आये थे, भगवान का दर्शन करने। उनके जाने के बाद मंदिर-प्रांगण को गंगाजल से धोकर शुद्ध किया गया। ऐसी शुद्धि को धर्म का आधार दिया गया। क्या वास्तव में धर्म विभेदात्मक अस्पृश्यता की प्रेरणा देता हैं, लोगों में घृणा के भाव फैलाता है धर्म शब्द की उत्पत्ति धृति से हुई है जिसका अर्थ है धारण करने योग्य। इसलिए, धर्म मनुष्य को जीवन की कला सिखाता है, घृणा और अपमान के पाठ नहीं पढ़ाता।
छुआछूत के सिद्धान्त में निहित नास्तिकता
. ईश्वर सर्वशक्तिमान है
      धर्म का पहला पाठ है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है। धनात्मक और ऋणात्मक भेद से शक्ति के दो प्रकार होते हैंकल्याणकारी (दिव्य) और अकल्याणकारी (आसुरी यानि शैतानी)। ईश्वर की शक्ति इन दोनों ही प्रकार की शक्तियों से ऊपर होती है, इसलिए वह सर्वशक्तिमान कहा जाता है। ईश्वर यदि सर्वशक्तिमान है तो किसी शूद्र के स्पर्श से वह स्वयं अपवित्र कैसे हो सकता है यदि वह किसी शूद्र के स्पर्श से इस प्रकार अपवित्र हो जाता है कि गंगाजल से धोये बिना उसकी शुद्धि सम्भव नहीं, तो निश्चय ही ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है। लेकिन, जो लोग उसे सर्वशक्तिमान नहीं मानते, वे घोर नास्तिक हैं।
. ईश्वर अघहारी है
      महात्मा गाँधी का प्रिय भजन हैरघुपति राघव राजा राम। पतित पावन सीता राम। इसमें ईश्वर को पतित पावन कहा गया है। बिन्दू कवि कहते हैंअघहारी हरि दुखिया जन के दुख-क्लेश हरेंगे कभी न कभी। यहाँ ईश्वर को अघ (पाप) का नाश करने वाला बताया गया है। बिन्दू कवि के कथन का अभिप्राय है कि कोई व्यक्ति यदि पापयुक्त हो गया है, फिर भी वह भगवान की शरण में चला जाता है तो भगवान उसका पाप हर लेते हैं और उसे निष्पाप बना देते हैंपतित से पावन बना देते हैं। मनुष्य की कोई बीमारी होती है तो वह डाक्टर के पास जाता है। डाक्टर उपचार के माध्यम से उसकी बीमारी दूर कर देता है। प्रश्न यह है कि जिस मनुष्य को पाप की बिमारी लग गई है-जिसका पतन हो चुका है, उसका ईलाज कौन करेगा इस प्रश्न का उत्तर यह है कि पाप की बीमारी को दूर करने वाला यदि कोई डॉक्टर है, तो वह स्वयं ईश्वर है। ईश्वर की तुलना हम पारस-मणि से कर सकते हैं जिसके स्पर्श-मात्र से लोहा भी सोना हो जाता है। अब यदि पारस मणि लोहे को स्पर्श से स्वयं शक्तिहीन हो जाए तो वह कैसा पारस-मणिॽ
३. शुद्धि-मंत्र
      उपरोक्त जवाब का आधार धार्मिक ग्रन्थ स्वयं हैं। कर्म-काण्ड में ‘शुद्ध मंत्र’ का व्यापक स्थान है। हाथ में जल लेकर शुद्धि मंत्र का उच्चारण किया जाता है और वह जल देह पर छिड़क कर शुद्ध हो जाने का अहसास किया जाता है। पूजनादि कार्यों में हम सभी इस मंत्र का पाठ या अनुश्रवण करते हैं, परन्तु मंत्र के अर्थ और कथ्य पर विचार नहीं करते। मंत्र इस प्रकार हैॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं, वाह्याभ्यान्तरः शुचिः।। लोग दो प्रकार के होते हैंपवित्र और अपवित्र। अवस्थाएँ भी दो प्रकार की होती हैशौचावस्था और अशौचावस्था। शौचावस्था में व्यक्ति अपवित्र माना जाता है और अशौचावस्था वह है जब जलादि छिड़ककर वह पवित्र हो जाता है। इस व्याख्या के अनुरूप मन्त्र का अर्थ इस प्रकार हैकोई व्यक्ति चाहे अपवित्र हो या पवित्र (अपवित्रः पवित्रो वा), अशौचावस्था में हो या शौचावस्था में (सर्वावस्था गतोऽपि वा), जैस ही वह भगवान विष्णु (ईश्वर) का स्मरण करता है (यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं), वह बाहर और भीतर से (तन और मन दोनों से) पवित्र हो जाता है (वाह्याभ्यान्तरः शुचिः)।
      इस शुद्धि मन्त्र से स्पष्ट हो जाता है कि ईश्वर के स्मरण मात्र से ही मनुष्य पतित से पावन हो जाता है। कोई व्यक्ति यदि मन्दिर जा रहा है तो निश्चय ही उसे ईश्वर का स्मरण हो आया है। इसकारण वह पतित से पवित्र हो चुका है। फिर भी, हम उसकी जाति पूछते हैं और यदि वह जाति का शूद्र हुआ तो उसे मन्दिर में प्रवेश करने से रोक देते हैं। किसी व्यक्ति को ईश्वर की उपासने करने से रोकने के लिये जब हम उसका मन्दिर में प्रवेश ही रोकते हैं, तो अनुमान कीजिये कि हम कितने बड़े असुर हैं जो भक्त के अधिकार का भी शमन करते हैं और ईश्वर के अधिकार का भी। यदि पतित को पावन बनाने की शक्ति ईश्वर में है तो पतित को पावन बनाने का भी अधिकार ईश्वर को ही है। किसी भक्त को रोकने का अर्थ है कि हम ईश्वर का अपमान कर रहे हैं, उसके अधिकार में बाधा पहुँचा रहे हैं। इसी प्रकार, कोई व्यक्ति ‘पतित’ है तो उसके इस रोग का ईलाज ईश्वर के पास ही है, इसलिए उसे ईश्वर के पास जाने का अधिकार है। किसी रोगी को उसके डाक्टर के पास जाने नहीं दिया जाय तो यह कितना अमानवीय कार्य होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है।
५.वर्ण-व्यवस्था
      यह सही है कि पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी ने अपने मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्र को उत्पन्न किया--ब्रह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम। पादोरुवक्षःस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।।(वि.पु. //)।। इस तर्क के आधार पर यह धारणा बना लेना कि ब्रह्माजी ने मनुष्य को इन चार वर्गों में विभाजित कर उत्पन्न किया है, अज्ञानात्मक तर्क है, क्योंकि उन से उत्पन्न ये चारों मनुष्य नहीं, वर्ण हैं--सर्वाश्चातुवर्ण्यमिदं ततः (//)।
      वर्ण और मनुष्य में भिन्नता है। वर्ण शब्द का अर्थ है रंग, इसलिए यह गुणबोधक है। अर्थात् यह समझा जाना चाहिए कि वर्णों के रूप में मनुष्य के चार गुणों (प्रवित्तियों) की उत्पत्ति हुई। मनुष्य की ज्ञानात्मक प्रवृत्ति को ब्राह्मण-वर्ण, रक्षात्मक प्रवृत्ति को क्षत्रिय-वर्ण, आर्थिक प्रवृत्ति को वैश्य-वर्ण और सेवाभाव की प्रवृत्ति को शूद्र-वर्ण की संज्ञा दी गई है।
       पुराणों का निश्चित कथन है कि मनुष्य की उत्पत्ति मनु से हुई। पुराणकार बताता है कि ब्रहामाजी ने मनुष्य के आदिपूर्वज के रूप में जिस मानव-बीज रूप प्राणी को उत्पन्न किया वह स्वायम्भुव मनु नाम से प्रसिद्ध है--तो ब्रह्माऽऽत्मसम्भूतं पूर्वं स्वायम्भुवं प्रभुः। आत्मानमेव कृतवान्प्रजापाल्ये मनुं द्विज।।(वि.पु. //१६)।। विदित हो कि मनु की संतति-परम्परा को ही मनुष्य (मनुज) कहा जाता है।
      अतः, वंशानुगत आधार पर मनुष्य को चार वर्गों में विभाजित करने की धारणा पौराणिक सिद्धान्तों के विपरीत है। यह विभेद तो उन लोगों का किया-कराया है जिन्होंने भारत में अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए फूट डालो और राज करो की नीति अपनायी।
रमाशंकर जमैयार