आधुनिक
इतिहासकारों के अनुसार भारतीय इतिहास का प्रारम्भ आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले
सैन्धव-घाटी सभ्यता की स्थापना से हुआ था। लेकिन, पौराणिक-इतिहास के अनुसार भारतीय
इतिहास इतना प्राचीन है कि इसे सनातन भी कहा जा सकता है। आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले तो कलियुग का आरम्भ हुआ था-- यदैव भगवान्विष्णोरंशो यातो दिवं द्विज। वसुदेवकुलोद्भूतस्तदैवात्रागतः
कलिः।।(विष्णु-पुराण, 4/24/108)।। कलियुग से पूर्व द्वापर युग था।
श्रीकृष्ण और कौरव-पाण्डव आदि द्वापर-कलि के सन्धिकाल के लोग थे। द्वापर से पूर्व
त्रेता-काल था और उससे पूर्व सत्युग था। चार युगों की चौकड़ी को चतुर्युग कहा जाता
है-कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिश्चैव चतुर्युगम (विष्णु पुराण, 1/3/15)। ऐसे इकहत्तर
चतुर्युगों का एक मनव्तर होता है—चतुर्युगाणां संख्याता साधिका ह्येकसप्ततिः
(वि.पु.,1/3/18)। वर्तमान मनवन्तर का नाम वैवस्वत मन्वन्तर है। इस मन्वतर के सत्ताईस
चतुर्युग बीत चुके हैं। अट्ठाईसवाँ चतुर्युग चल रहा है। इस चतुर्युग के तीन युग भी
बीत चुके हैं और यह कलियुग चल रहा है। अतः यह कह देना कि भारतीय इतिहास का
प्रारम्भ सैन्धव घाटी सभ्यता से हुआ,
षड़यन्त्रपूर्वक रचित विकृति है।
सैन्धव-घाटी सभ्यता की अपनी वास्तविकता है। इसकी स्थापना भगवान
श्रीकृष्ण के काल में हुई थी, इसलिए पाँच हजार वर्ष से अधिक पुरानी सभ्यता है। 1922 ईस्वी में हड़प्पा-आदि स्थलों का पुरातात्विक उत्खनन्
किया गया था जिससे अनेक पुरातात्विक प्रमाण मिले।
विदित
हो कि यह विदेशी दासता का काल था। 1857 ईस्वी में महारानी लक्ष्मीबाई, तात्या
टोपे, वीर कुँअर सिंह, मंगल पाँडे सरीखे राजघराने से लेकर अंग्रेजी सेना के
सिपाहियों तक ने मिलकर राष्ट्रीय एकता का परचम लहराते हुए प्रथम स्वतन्त्रता
संग्राम का युद्ध लड़ा था। भविष्य में ऐसी राष्ट्रीय एकता कभी न बन पाये, इस
दृष्टि से अंग्रेजी-सत्ता ने भारतीय संस्कृति और इतिहास को विकृत करने का कार्य
अंग्रेजी-सत्ता सम्पोषित इतिहासकारों को दिया।
इन इतिहासकारों ने उत्खनन् से प्राप्त
पुरातात्विक प्रमाणों की वास्तविक व्याख्या इस प्रकार है—
1.
सोलह की संख्या का
सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से
उत्खनन् से प्राप्त
प्रमाणों से ज्ञात हुआ कि इस सभ्यता के लोगों ने 16 की संख्या को इकाई निर्धारण का
आधार बना रखा था। 16 आनों का एक रूपया, 16 छटाँक का एक सेर आदि। सोलह की संख्या का
यह आधार पिछले पाँच हजार साल से आजादी के बाद भी तबतक चलता रहा जब तक कि भारत की
सरकार ने दशमलव-पद्धति नहीं लागू की।
प्रश्न यह है कि लोगों ने 'सोलह' की संख्या को
ऐसा महत्व क्यों दिया? भारतीय इतिहास की वास्तविकता को विकृत करने के लिये ये
इतिहासकार इस विन्दु को गोल कर गये हैं। हम इस
प्रश्न को पुनः खड़ा करते हैं।
सोलह की संख्या का
सम्बन्ध सीधे-सीधे भगवान श्रीकृष्ण से है। उनका जन्म चन्द्रवंश में हुआ था। कालयवन
को अपना परिचय देते हुए श्रीकृष्ण स्वयं
कहते हैं कि वे चन्द्रवंश के अन्तर्गत यदुकुल में वसुदेवजी के पुत्ररूप से उत्पन्न
हुए हैं—वसुदेवस्य तनयो यदोर्वंशसमुद्भवः। विदित
हो कि महाराज यदु चन्द्रवंशी
थे।
वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु आदि उत्पन्न
सन्तान-परम्परा को सूर्यवंश कहा जाता है, जबकि
वैवस्वत मनु की पुत्री इला से उत्पन्न सन्तति-परम्परा को चन्द्रवंश
कहा जाता है। इला का विवाह चन्द्रमा के पुत्र
बुध से हुआ था जिससे पुरुरवा का जन्म हुआ।
इसलिए यह राजवंश चन्द्रवंशी कहलाया।
भगवान श्रीकृष्ण चन्द्रवंशी थे। उन्हें
पूर्ण-ब्रह्म का अवतार माना जाता है। चन्द्रमा की सोलह कलाएँ होती हैं, इसलिए कहा जाता
है कि श्रीकृष्ण सोलहों कलाओं से पूर्ण थे। इस
आधार पर सोलह की संख्या को महत्ता मिली। इससे
प्रमाणित होता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता का निकटतम सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से था।
2.
श्री कृष्ण आनर्त्त-देश के शासक थे
जिस क्षेत्र को सैन्धव-सभ्यता
का क्षेत्र कहा जाता है, उसे पुराणों में आनर्त्त-देश
कहा गया है। बलरामजी का विवाह जिस रेवती नामक जिस कन्या से हुआ था, उस कन्या के
पिता रेवतजी ही उस देश के नरेश थे। रेवती से विवाह के कारण इस राज्य का
उत्तराधिकार कृष्ण-बलराम को मिल गया।
पूर्व में देश की राजधानी का नाम कुशस्थनी
था। राजधानी का यह क्षेत्र समुद्र-तल में समा गया था, इसलिए श्रीकृष्ण ने राजधानी
का वह क्षेत्र समुद्र से माँगकर वहाँ द्वारका नामक नगरी बसायी—कुशस्थली या तव भूप
रम्या/पुरी पराद्भूदमरावतीव। सा द्वारका सम्प्रति तत्र चास्ते/स केशवांशो
बलदेवनाम।।(विष्णु पुराण, 4/1/91)।।
3.
श्रीकृष्ण ने
नागरी-सभ्यता की स्थापना की
पुराणों में बताया गया है कि कालयवन के
संहार के पूर्व ही भगवान ने द्वारका नगरी बसा ली थी और उग्रसेन समेत सभी
यदुवंशियों को आनर्त्त-देश में स्थापित कर दिया था। उन्होंने अपनी राजधानी के लिए समुद्र
से जो भूमि मांगी, वह समुद्र-गर्भ में समायी कुशस्थली ही थी। यहाँ उन्होंने
नागरी-सभ्यता के अनुरूप न केवल अपनी राजधानी बनायी, बल्कि उसी के समान
नागरी-सभ्यता का विस्तार अपने सम्पूर्ण राज्य-क्षेत्र में भी किया। श्रीमद्भागवत
में विवरण है कि इसके लिये उन्होंने देवताओं के अभियन्ता विश्वकर्माजी की सेवाएँ
लीं। यही कारण है कि समस्त सैन्धव-सभ्यता में नागरी-सभ्यता के प्रमाण मिलते हैं।
4.
देवी-देवता और
उपासना-व्यवस्था
श्रीकृष्ण
स्वयं ही भगवान् विष्णु के साक्षात् अवतार थे। उन्होंने भगवद्गीता में स्वयं को
बारम्बार ईश्वर रूप से प्रतिपादित किया है। अर्थात्, वह भगवान विष्णु के जीवित
स्वरूप थे। भारतीय संस्कृति की परिपाटी है कि जीवित व्यक्ति की प्रतिमाएँ नहीं
लगायी जातीं, इसलिए सैन्धव-सभ्यता में कहीं भगवान विष्णु की प्रतिमा नहीं मिलती।
जिस श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था, ठीक उसी समय उनकी
पराशक्ति ने यशोदा के गर्भ से अवतार लिया था। कृष्ण को यशोदा के पास और इस कन्या
को कंस के कारागार में पहुँचा दिया गया था। कंस ने इस कन्या को ही देवकी की आठवीं
सन्तान मान कर शिला पर पटक कर मारना चाहा तो उसके हाथों से छूटकर वह आकाश की दिशा
में ऊपर जाकर देवीरूप से प्रकट हो गईं। उन्होंने कंस को बताया कि दुनिया का
तारणहार और तुम्हारा संहारक जन्म ले चुका है। भगवती मनुष्यरूप में स्थित नहीं हुईं।
उनके इस स्वरूप की उपासना सम्पूर्ण सैन्धव-सभ्यता में की जाती थी। इसलिए
मातृ-शक्तियों की प्रतिमाएं सैन्धव-क्षेत्र में मिलीं।
भगवान शिव और रुद्र के अनेकानेक रूपों की
पूजा-उपासना सम्पूर्ण भारत में सदा से चलती आ रही है। चाहे कश्मीर में अमरनाथ हो
या दक्षिण-तट पर रामेश्वरम, चाहे कैलाश पर्वत हो या काशी या उज्जैन।
5.
आनर्त्त-देश (सैन्धव-सभ्यता)
का सर्वनाश
यदुवंशियों
के विनाश की कथा पुराणों में वर्णित है—कृत्वा भारावतरणं भुवो हत्वाखिलानृपान्।
शापवयाजेन विप्रणामुपसंहृतवान्कुलम्।।(वि.पु. 5/37/3)।। अर्थात् सम्पूर्ण पापी
राजाओं (कुछ को स्वयं एवं कुछ का महाभारत युद्ध के म्ध्यम से) संहार कर के उन्होंने पृथ्वी का भारावतरण किया और फिर
ब्राह्मणों के शाप के कारण अपने कुल का भी उपसंहार कर दिया। यादवों की विशाल सेना,
उसके सेनापति और सरदार आपस में ही उलझ कर एक दूसरे लड़कर मारे गये।
फिर जिस दिन श्रीकृष्ण का देहावसान
(परलोकगमन) हुआ, समुद्र की बाढ़ से आनर्त्त-देश का सम्पूर्ण क्षेत्र आप्लावित हो
गया और द्वारका नगरी भी पुनः समुद्र में डूब गई—प्लावयामास
तां शून्यां द्वारकं च महोदधिः।
यह सम्पूर्ण पौराणिक विवरण एवं
सैन्धव-सभ्यता के पुरातात्वि प्रमाण एक दूसरे से मेल खाते हैं। द्वारका-नगरी आज भी
गुजरात समुद्र-तट पर है। वैज्ञानिकों ने समुद्र में डूबी द्वारका का भी पता लगा
लिया है। सिन्धु नदी के क्षेत्र से लेकर गुजरात आदि का बहुत बड़ा क्षेत्र
आनर्त्त-देश की सीमा के अन्तर्गत था। इसी क्षेत्र को आधुनिक इतिहासकारों ने
सैन्धव-सभ्यता का नाम दिया है।
अतएव सुनिश्चित रूप से प्रमाणित होता है कि भगवान
श्रीकृष्ण द्वारा द्वारका-नगरी को केन्द्र बना कर जिस आनर्त्त-साम्राज्य की
स्थापना की गई थी, वह वास्तव यादवी-सभ्यता का क्षेत्र था और इसे ही इतिहासकारों ने
सैन्धव-सभ्यता का नाम दिया है।
रमाशंकर जमैयारआधुनिक
इतिहासकारों के अनुसार भारतीय इतिहास का प्रारम्भ आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले
सैन्धव-घाटी सभ्यता की स्थापना से हुआ था। लेकिन, पौराणिक-इतिहास के अनुसार भारतीय
इतिहास इतना प्राचीन है कि इसे सनातन भी कहा जा सकता है। आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले तो कलियुग का आरम्भ हुआ था-- यदैव भगवान्विष्णोरंशो यातो दिवं द्विज। वसुदेवकुलोद्भूतस्तदैवात्रागतः
कलिः।।(विष्णु-पुराण, 4/24/108)।। कलियुग से पूर्व द्वापर युग था।
श्रीकृष्ण और कौरव-पाण्डव आदि द्वापर-कलि के सन्धिकाल के लोग थे। द्वापर से पूर्व
त्रेता-काल था और उससे पूर्व सत्युग था। चार युगों की चौकड़ी को चतुर्युग कहा जाता
है-कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिश्चैव चतुर्युगम (विष्णु पुराण, 1/3/15)। ऐसे इकहत्तर
चतुर्युगों का एक मनव्तर होता है—चतुर्युगाणां संख्याता साधिका ह्येकसप्ततिः
(वि.पु.,1/3/18)। वर्तमान मनवन्तर का नाम वैवस्वत मन्वन्तर है। इस मन्वतर के सत्ताईस
चतुर्युग बीत चुके हैं। अट्ठाईसवाँ चतुर्युग चल रहा है। इस चतुर्युग के तीन युग भी
बीत चुके हैं और यह कलियुग चल रहा है। अतः यह कह देना कि भारतीय इतिहास का
प्रारम्भ सैन्धव घाटी सभ्यता से हुआ,
षड़यन्त्रपूर्वक रचित विकृति है।
सैन्धव-घाटी सभ्यता की अपनी वास्तविकता है। इसकी स्थापना भगवान
श्रीकृष्ण के काल में हुई थी, इसलिए पाँच हजार वर्ष से अधिक पुरानी सभ्यता है। 1922 ईस्वी में हड़प्पा-आदि स्थलों का पुरातात्विक उत्खनन्
किया गया था जिससे अनेक पुरातात्विक प्रमाण मिले।
विदित
हो कि यह विदेशी दासता का काल था। 1857 ईस्वी में महारानी लक्ष्मीबाई, तात्या
टोपे, वीर कुँअर सिंह, मंगल पाँडे सरीखे राजघराने से लेकर अंग्रेजी सेना के
सिपाहियों तक ने मिलकर राष्ट्रीय एकता का परचम लहराते हुए प्रथम स्वतन्त्रता
संग्राम का युद्ध लड़ा था। भविष्य में ऐसी राष्ट्रीय एकता कभी न बन पाये, इस
दृष्टि से अंग्रेजी-सत्ता ने भारतीय संस्कृति और इतिहास को विकृत करने का कार्य
अंग्रेजी-सत्ता सम्पोषित इतिहासकारों को दिया।
इन इतिहासकारों ने उत्खनन् से प्राप्त
पुरातात्विक प्रमाणों की वास्तविक व्याख्या इस प्रकार है—
1.
सोलह की संख्या का
सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से
उत्खनन् से प्राप्त
प्रमाणों से ज्ञात हुआ कि इस सभ्यता के लोगों ने 16 की संख्या को इकाई निर्धारण का
आधार बना रखा था। 16 आनों का एक रूपया, 16 छटाँक का एक सेर आदि। सोलह की संख्या का
यह आधार पिछले पाँच हजार साल से आजादी के बाद भी तबतक चलता रहा जब तक कि भारत की
सरकार ने दशमलव-पद्धति नहीं लागू की।
प्रश्न यह है कि लोगों ने 'सोलह' की संख्या को
ऐसा महत्व क्यों दिया? भारतीय इतिहास की वास्तविकता को विकृत करने के लिये ये
इतिहासकार इस विन्दु को गोल कर गये हैं। हम इस
प्रश्न को पुनः खड़ा करते हैं।
सोलह की संख्या का
सम्बन्ध सीधे-सीधे भगवान श्रीकृष्ण से है। उनका जन्म चन्द्रवंश में हुआ था। कालयवन
को अपना परिचय देते हुए श्रीकृष्ण स्वयं
कहते हैं कि वे चन्द्रवंश के अन्तर्गत यदुकुल में वसुदेवजी के पुत्ररूप से उत्पन्न
हुए हैं—वसुदेवस्य तनयो यदोर्वंशसमुद्भवः। विदित
हो कि महाराज यदु चन्द्रवंशी
थे।
वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु आदि उत्पन्न
सन्तान-परम्परा को सूर्यवंश कहा जाता है, जबकि
वैवस्वत मनु की पुत्री इला से उत्पन्न सन्तति-परम्परा को चन्द्रवंश
कहा जाता है। इला का विवाह चन्द्रमा के पुत्र
बुध से हुआ था जिससे पुरुरवा का जन्म हुआ।
इसलिए यह राजवंश चन्द्रवंशी कहलाया।
भगवान श्रीकृष्ण चन्द्रवंशी थे। उन्हें
पूर्ण-ब्रह्म का अवतार माना जाता है। चन्द्रमा की सोलह कलाएँ होती हैं, इसलिए कहा जाता
है कि श्रीकृष्ण सोलहों कलाओं से पूर्ण थे। इस
आधार पर सोलह की संख्या को महत्ता मिली। इससे
प्रमाणित होता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता का निकटतम सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से था।
2.
श्री कृष्ण आनर्त्त-देश के शासक थे
जिस क्षेत्र को सैन्धव-सभ्यता
का क्षेत्र कहा जाता है, उसे पुराणों में आनर्त्त-देश
कहा गया है। बलरामजी का विवाह जिस रेवती नामक जिस कन्या से हुआ था, उस कन्या के
पिता रेवतजी ही उस देश के नरेश थे। रेवती से विवाह के कारण इस राज्य का
उत्तराधिकार कृष्ण-बलराम को मिल गया।
पूर्व में देश की राजधानी का नाम कुशस्थनी
था। राजधानी का यह क्षेत्र समुद्र-तल में समा गया था, इसलिए श्रीकृष्ण ने राजधानी
का वह क्षेत्र समुद्र से माँगकर वहाँ द्वारका नामक नगरी बसायी—कुशस्थली या तव भूप
रम्या/पुरी पराद्भूदमरावतीव। सा द्वारका सम्प्रति तत्र चास्ते/स केशवांशो
बलदेवनाम।।(विष्णु पुराण, 4/1/91)।।
3.
श्रीकृष्ण ने
नागरी-सभ्यता की स्थापना की
पुराणों में बताया गया है कि कालयवन के
संहार के पूर्व ही भगवान ने द्वारका नगरी बसा ली थी और उग्रसेन समेत सभी
यदुवंशियों को आनर्त्त-देश में स्थापित कर दिया था। उन्होंने अपनी राजधानी के लिए समुद्र
से जो भूमि मांगी, वह समुद्र-गर्भ में समायी कुशस्थली ही थी। यहाँ उन्होंने
नागरी-सभ्यता के अनुरूप न केवल अपनी राजधानी बनायी, बल्कि उसी के समान
नागरी-सभ्यता का विस्तार अपने सम्पूर्ण राज्य-क्षेत्र में भी किया। श्रीमद्भागवत
में विवरण है कि इसके लिये उन्होंने देवताओं के अभियन्ता विश्वकर्माजी की सेवाएँ
लीं। यही कारण है कि समस्त सैन्धव-सभ्यता में नागरी-सभ्यता के प्रमाण मिलते हैं।
4.
देवी-देवता और
उपासना-व्यवस्था
श्रीकृष्ण
स्वयं ही भगवान् विष्णु के साक्षात् अवतार थे। उन्होंने भगवद्गीता में स्वयं को
बारम्बार ईश्वर रूप से प्रतिपादित किया है। अर्थात्, वह भगवान विष्णु के जीवित
स्वरूप थे। भारतीय संस्कृति की परिपाटी है कि जीवित व्यक्ति की प्रतिमाएँ नहीं
लगायी जातीं, इसलिए सैन्धव-सभ्यता में कहीं भगवान विष्णु की प्रतिमा नहीं मिलती।
जिस श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था, ठीक उसी समय उनकी
पराशक्ति ने यशोदा के गर्भ से अवतार लिया था। कृष्ण को यशोदा के पास और इस कन्या
को कंस के कारागार में पहुँचा दिया गया था। कंस ने इस कन्या को ही देवकी की आठवीं
सन्तान मान कर शिला पर पटक कर मारना चाहा तो उसके हाथों से छूटकर वह आकाश की दिशा
में ऊपर जाकर देवीरूप से प्रकट हो गईं। उन्होंने कंस को बताया कि दुनिया का
तारणहार और तुम्हारा संहारक जन्म ले चुका है। भगवती मनुष्यरूप में स्थित नहीं हुईं।
उनके इस स्वरूप की उपासना सम्पूर्ण सैन्धव-सभ्यता में की जाती थी। इसलिए
मातृ-शक्तियों की प्रतिमाएं सैन्धव-क्षेत्र में मिलीं।
भगवान शिव और रुद्र के अनेकानेक रूपों की
पूजा-उपासना सम्पूर्ण भारत में सदा से चलती आ रही है। चाहे कश्मीर में अमरनाथ हो
या दक्षिण-तट पर रामेश्वरम, चाहे कैलाश पर्वत हो या काशी या उज्जैन।
5.
आनर्त्त-देश (सैन्धव-सभ्यता)
का सर्वनाश
यदुवंशियों
के विनाश की कथा पुराणों में वर्णित है—कृत्वा भारावतरणं भुवो हत्वाखिलानृपान्।
शापवयाजेन विप्रणामुपसंहृतवान्कुलम्।।(वि.पु. 5/37/3)।। अर्थात् सम्पूर्ण पापी
राजाओं (कुछ को स्वयं एवं कुछ का महाभारत युद्ध के म्ध्यम से) संहार कर के उन्होंने पृथ्वी का भारावतरण किया और फिर
ब्राह्मणों के शाप के कारण अपने कुल का भी उपसंहार कर दिया। यादवों की विशाल सेना,
उसके सेनापति और सरदार आपस में ही उलझ कर एक दूसरे लड़कर मारे गये।
फिर जिस दिन श्रीकृष्ण का देहावसान
(परलोकगमन) हुआ, समुद्र की बाढ़ से आनर्त्त-देश का सम्पूर्ण क्षेत्र आप्लावित हो
गया और द्वारका नगरी भी पुनः समुद्र में डूब गई—प्लावयामास
तां शून्यां द्वारकं च महोदधिः।
यह सम्पूर्ण पौराणिक विवरण एवं
सैन्धव-सभ्यता के पुरातात्वि प्रमाण एक दूसरे से मेल खाते हैं। द्वारका-नगरी आज भी
गुजरात समुद्र-तट पर है। वैज्ञानिकों ने समुद्र में डूबी द्वारका का भी पता लगा
लिया है। सिन्धु नदी के क्षेत्र से लेकर गुजरात आदि का बहुत बड़ा क्षेत्र
आनर्त्त-देश की सीमा के अन्तर्गत था। इसी क्षेत्र को आधुनिक इतिहासकारों ने
सैन्धव-सभ्यता का नाम दिया है।
अतएव सुनिश्चित रूप से प्रमाणित होता है कि भगवान
श्रीकृष्ण द्वारा द्वारका-नगरी को केन्द्र बना कर जिस आनर्त्त-साम्राज्य की
स्थापना की गई थी, वह वास्तव यादवी-सभ्यता का क्षेत्र था और इसे ही इतिहासकारों ने
सैन्धव-सभ्यता का नाम दिया है।
रमाशंकर जमैयार