ऋषि विश्वामित्र और
अप्सरा मेनका
भारतीय अध्यात्म नारी को भोग्या नहीं, शक्तिरूप बताता है, चाहे वह
प्रेमिका हो या पत्नी।
भारत के ऐतिहासिक
गाथाओं में चाहे उसे आधुनिक काल के उपन्यासकार आचार्य चतुरसेन ने लिखा हो या
पुराणकारों ने, पत्नी या प्रेमिका के रूप में नारी का चित्रण भोग्या के रूप में
नहीं, बल्कि 'शक्ति-स्वरूपा' के रूप में किया गया है। आचार्य चतुरसेन के चित्रलेखा
एवं आम्रपाली उपन्यासों में भी यही दीखता है। ये नायिकाएँ अपने समय के महान्
योगियों के समकक्ष ही नहीं, कभी-कभी उनसे श्रेष्ठ दिखाई देती हैं। उनके रूप-सौन्दर्य
और भोग-वैभव में भोगवादी कालिमा नहीं, आध्यात्मिक चाँदनी बिखरी मिलती है। इसके विपरीत सीजर
और क्लियोपेट्रा की यूरोपियन गाथाओं में नारी की शारीरिक मादकता और भोग्या का
स्वरूप झलकता है जिसका उपयोग वह अपने लाभ के लिए करती है।
पाश्चात्य
संस्कृति शारीरिक आधार पर सेक्स की पहचान शारीरिक भूख के रूप में करती है। इसके
ठीक विपरीत, भारतीय संस्कृति इस सिद्धान्त को सिरे से नकारती है। उसके पास आधार है
वैदिक विज्ञान का जिसमें शरीर और आत्मा की प्रकृति का वैज्ञानिक विवरण शामिल है।
इस विषय पर हम ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की प्रेम-गाथा के माध्यम से विवकण
प्रस्तुत करना चाहेंगे।
आधुनिक इतिहासकारों ने पुराणों से चक्रवर्त्ती
सम्राट भरत का प्रसंग उठाया है और बताया है कि इन्हीं के नाम पर इस देश का नाम 'भारत' पड़ा। इनके पिता पुरुवंशी राजा दुष्यन्त थे और
माता थीं शकुन्तला। इसलिए, शकुन्तला का सम्बन्ध
भारतीय इतिहास से है। पुराणों में बताया गया है कि महाराज दुष्यन्त ने
शकुन्तला की रूप-कान्ति पर रीझकर उनसे प्रेमविवाह किया था। वह मेनका नामक अप्सरा
की पुत्री थीं, इसलिए स्वाभाविकरूप से परम सुन्दरी थीं। उनकी पहली
मुलाकात वनों में स्थित कण्व ऋषि के आश्रम के निकट हुआ था। परिचय पूछने पर
शकुन्तला ने उन्हें बताया कि वह विश्वामित्रजी की पुत्री है और उसकी माता मेनका ने
उन्हें यहाँ (ऋषि आश्रम) में छोड़ रखा है—विश्वामित्रात्मजैवाहं
त्यक्ता मेनकया वने (श्रीमद्भागवद, 9/20/13)।
इसप्रकार, ऋषि
विश्वामित्र और मेनका का सम्बन्ध भी भारतीय
इतिहास से है।
भारत को
लोग विश्वामित्र को एक 'ऋषि' के रूप में जानते हैं। वैदिक विज्ञान में ऋषि शब्द का
विशेष अर्थ है। पहली बात तो यह कि उन्हें ही वैदिक-ऋचाओं का 'द्रष्टा' माना जाता
है और दूसरी बात यह कि उन्हें 'अमर' बताया जाता है। विष्णु पुराण के अनुसार
ब्रह्माजी ने आरम्भ में नौ मानस-पुत्रों को उत्पन्न
किया--अथान्यान्मानसान्पुत्रान्सदृशानात्मनोऽसृजतम (वि.पु.,1/7/4)। इनमें वशिष्ठ,
भृगु, अत्रि आदि के नाम पौराणिक आख्यानों में बराबर आते हैं। ये ब्रह्मा के पुत्र
होने के कारण अमर थे।
परन्तु,
विश्वामित्र इनसे भिन्न थे। उनका जन्म मानव-वंश में हुआ था। वे जाह्नु-वंश के सम्राट कुशाम्ब के पौत्र और गाधि के पुत्र थे। बाद में उन्होंने अपने पिता के राज्य का
उत्तराधिकार प्राप्त कर वीर क्षत्रिय की भाँति राज्य भी किया। विवाहकर पुत्रादि भी
उत्पन्न किये।
फिर भी,
विश्वामित्र की गणना पूर्वोक्त अमर ऋषियों की श्रेणी में की जाती है। इन्हें उन सप्तर्षियों में से एक माना गया है जो ध्रुव-तारे की परिक्रमा करने वाले सप्तर्षि संज्ञक तारामंडल
के अधिपति हैं—वसिष्ठः काश्यपोऽथात्रिर्जमदग्निस्सगौतमः।
विश्वामित्रभरद्वाजौ सप्त सप्तर्षयोऽभवन।।(विष्णु पुराण, 3/1/32)।। तात्पर्य
यह है कि वे मानव-जाति के उन विभूतियों में से
है जिन्होंने मनुष्य-योनि में जन्म लेकर भी अमरत्व और ऋषित्व प्राप्त किया।
अमरत्व और
ऋषित्व प्राप्त करने वाले विश्वामित्र निश्चय ही महान तपस्वी एवं सिद्ध-योगी थे।
तपस्या के क्रम में ही उनकी मुलाकात अप्सरा मेनका से हुई। फिर, मेनका की याचना पर
उन्होंने उसे सन्तान-सुख प्रदान किया जिसके फलस्वरूप शकुन्तला का जन्म हुआ।
भारतीय
संस्कृति में जहाँ अप्सराओं को स्त्री-सौन्दर्य का
सबसे सुन्दर रूप माना जाता है, वहीं अन्यान्य संस्कृतियों के ग्रन्थों में
भी परियों की कहानी आती है और इन्हें भी स्त्री-सौन्दर्य का सबसे सुन्दर रूप माना गया है। इन्हें
मनुष्य-लोक से भिन्न परीलोक
का निवासी माना गया है। हातिमताई की कहानियों
में ऐसी कुछ परियों की चर्चा है। कुछ लोग इन कहानियों को गल्प-कथा मानते हैं।
लेकिन, वैज्ञानिकों को उड़न-तश्तिरयों और एलियन्स के प्रमाण मिल चुके हैं और यह
स्वीकार किया जा चुका है कि एलियन्स (परलोकवासी) भी हैं जिनका विज्ञान हमारे
विज्ञान से बहुत आगे है।
भारतीय
ग्रन्थों में अप्सराओं को देवराज इन्द्र के स्वर्गलोक का निवासी
बताया गया है और उन्हें देवराज इन्द्र के अधीन माना गया है। कहा जाता है कि देवराज इन्द्र
द्वारा उनका उपयोग कई बार तपस्वियों की तपस्या को भंग करने के लिये भी किया जाता
है, क्योंकि उनके रूप-सौन्दर्य का आकर्षण अत्यन्त प्रबल होता है—धरती की नारियों
की तुलना में बहुत ही अधिक। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि क्या इन्द्र ने मेनका को भी विश्वामित्र की तपस्या भंग करने
को भेजा था?
इस
सम्बन्ध में स्पष्टरूप से कहा जा सकता है कि इन्द्र को विश्वामित्र से किसी प्रकार
की ईष्या नहीं थी, क्योंकि वे तो स्वयं देवराज इन्द्र के पुत्र थे। इस सम्बन्ध में
विष्णु पुराण में बताया गया है कि विश्वामित्रजी के पितामह .कुशाम्ब की इच्छा थी
कि उसका इन्द्र के सामान प्रतापी एक पुत्र उत्पन्न हो। इस निमित्त उसने घोर तप
किया—तेषां कुशाम्बः शक्रतुल्यो मे पुत्रो भवेदिति
तपश्चकार (वि.पु., 4/7/9)। देवराज को भय हुआ कि कुशाम्ब के पुत्ररूप से
कहीं कोई दूसरा इन्द्र न उत्पन्न हो जाए,
इसलिए स्वयं इन्द्र ही उसके पुत्ररूप से अवतरित हो गये और गाधि के नाम से जाने गये
जो विश्वामित्र के पिता थे।
अतः,
देवराज इन्द्र प्रकारान्तर से विश्वामित्रजी के पिता थे। वे उनकी तपस्या की सिद्धि
चाहते थे। इसलिये उन्होंने योगसिद्धि में उनकी सहायिका
बनाकर उनके पास भेजा।
हर
सामान्य व्यक्ति स्त्री के रूप-सौन्दर्य को
भोग की वस्तु तो मान सकता है, लेकिन तपस्या में
सिद्धि का कारक मानने को तैयार नहीं होगा। परन्तु, योग और अध्यात्म के विज्ञान
में स्त्री को सिद्धि का कारक बताया गया है—
भगवद्गीता
में श्रीकृष्ण जीवात्मा के सम्बन्ध में कहते हैं—सर्वयोनिषु
कौन्तेय मूत्तर्यः सम्भवन्ति या। तासां ब्रह्म मह्द्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।(14/4)।।
वे अर्जुन से कहते हैं-हे अर्जुन (कौन्तेय)! प्रत्येक योनि की जो वाह्याकृति (मूर्त्ति) होती है (सम्भवन्ति वा)। वह
महद्-ब्रह्म (ब्रह्म महद्) का बलात्मक घेरा है
(जिसे पराशक्ति या माया के नाम से भी जाना
जाता है। उस वाह्याकृति
(वाह्य-परिच्छेद) की बीज-शक्तिरूप से
(बीजप्रदः) मैं (अहं) स्वयं स्थित हूँ, इसलिए सबका पिता
हूँ।
विदित हो
कि बीजशक्ति का अर्थ है केन्द्र-शक्ति। अर्थात् केन्द्र
पर स्थित विन्दुरूप शक्ति। श्रीकृष्ण बताते
हैं कि जीवात्मा के केन्द्र पर परब्रह्म विन्दुरूप नित्य
शक्ति है। इसे प्रजापति भी कहते हैं।
जीवात्मा के ही सन्दर्भ में बृहदारण्यकोपनिषद (5/9/1) में बताया गया है कि यह
विन्दुरूप 'ब्रह्म' अकेला नहीं रहना चाहता ( स नैव रेमे तस्मादेकाकी)। एक से दो होने की इच्छा से (स द्वितीयमैच्छत्) वह चने की दाल की तरह आधा-आधा होकर दो भागों में
विभाजित हो जाता है। इनमें से एक स्त्रीरूप है और दूसरा पुरुषरूप (स्त्रीपुमांसौ संपरिष्वक्तौ)। यह स्त्रीरूपा-भाग ही योग-शास्त्रों में कुण्डलिनी-शक्ति के नाम से प्रसिद्ध है और पुरुषरूप-भाग को सदाशिव
नाम से जाना जाता है। ये दोनों एक ही शक्ति के दो स्वरूप हैं, परस्पर पति-पत्नी
रूप हैं, इसलिए इन दोनों में घोर आकर्षण रहता है। इन दोनों
को परस्पर मिलने से बाधित करने के लिए ही मानव-योनि में षटचक्रों
की व्यवस्था है। षटचक्रों में सबसे नीचे मूलाधार चक्र
है जो कुण्डलिनी-शक्ति का स्थान है और सबसे ऊपर
सहस्रार चक्र है जो सदाशिव का स्थान है।
यह स्थिति स्त्री और पुरुष, दोनों में ही
समानरूप से रहती है। फिर भी, दोनों में स्पष्ट अन्तर यह है कि स्त्री कुण्डलिनी-प्रधाना
होती है और पुरुष सदाशिव-प्रधान होता है। हम यह समझते हैं कि पुरुष के शरीर को देखकर स्त्री
और स्त्री के शरीर को देखकर पुरुष आकर्षित होता है, लेकिन यह वाह्य-भ्रम भर है।
यहाँ तो पुरुष का सदाशिव स्त्री की कुण्डलिनी-शक्ति के प्रति तथा स्त्री की कुण्डलिनी-शक्ति
पुरुष के सदाशिव के प्रति आसक्ति व्यक्त करता है।
योग-साधना में कुण्डलिनी-शक्ति को
जाग्रत किया जाता है। इससे वह एक-एक कर ऊपर के चक्रों का भेदन
करते (पार करते) हुए सहस्रार-चक्र स्थित सदाशिव से जा मिलती है और उसके साथ संयुक्त हो जाती
है। फिर वे दोनों हृद्य-स्थित अनहद-चक्र पर आकर स्थित हो जाते हैं। यही योग की पूर्णता
है। इसी स्थिति को मोक्ष कहा जाता है। यहाँ ब्रह्म अपने
पूर्ण-स्वरूप में स्थित रहता है, इसलिए इस स्थिति का योग-विद्या द्वारा व्यावहारिक
ज्ञान ही ब्रह्म-ज्ञान है।
विश्वामित्र और अप्सरा मेनका
विश्वामित्रजी ब्रह्म-ज्ञान अर्थात् मोक्ष-प्राप्ति
की ही साधना कर रहे थे। इसमें पहले ध्यान को एकाग्र कर मन की चंचलता को दूर किया
जाता है, क्योंकि चंचलता-विहीन स्थिति मे ही मन
योग का साधन बन पाता है। वह कुण्डलिनी-शक्ति-के
गिर्द भ्रमर की तरह उसके चारों ओर घूमने लगता
है जिससे कुण्डलिनी-शक्ति जाग्रत होने लगती है। विश्वामित्र जी को
इस स्थिति तक पहुँचने में ही बाधा हो रही थी। वे क्षत्रिय-वंश के थे, इसलिए उनमें
क्रोध अधिक था।
ऐसे समय में उन्हें एक ऐसी वाह्य-शक्ति की
आवश्यकता थी जो एक झटके से उनके ध्यान को एकग्र कर उनके मन की चंचलता भी दूर कर दे
और साथ ही साथ उनकी कुण्डलिनी-शक्ति को भी जाग्रत कर दे। ये दोनों ही शक्तियाँ
नारी-सौन्दर्य में है। यह व्यावहारिक तथ्य है कि कोई सुन्दरी जब समक्ष आ जाती है
तो आँखें उसी पर जम जाती हैं। केवल आँखें ही नहीं, पूरा ध्यान ही उस पर एकाग्र हो
जाता है। ध्यान की एकाग्रता का आलम यह होता है कि कभी-कभी आस-पास के माहौल का भान
भी नहीं रहता।
मेनका स्वर्ग की
अप्सरा थी, किसी भी मानवी की तुलना में
उसके रूप-सौन्दर्य का आकर्षण प्रबलततर था। इसके कारण विश्वामित्र को उसके रूप-सौन्दर्य के ध्यान से ही एकाग्रता की प्राप्ति हो गई—मन एकाग्र हो
गया। नारी होने के कारण
वह कुण्डलिनी-प्रधाना थी और अप्सरा होने
के कारण इसरूप में भी प्रबलतम थी।
फलस्वरूप, विश्वामित्रजी शीघ्र ही न केवल ध्यानस्थ हो पाये, बल्कि अपनी कुण्डलिनी-शक्ति
को भी जाग्रत कर पाये। फलस्वरूप उन्हें शीघ्र ही कुण्डलिनी-शक्ति और सदाशिव के अनहद-चक्र पर स्थित होने का व्यावहारिक ज्ञान
प्राप्त हो गया और उनके योग की सिद्धि हो गई।
इनकी योग-सिद्धि में सहायिका बनी मेनका ने विश्वामित्रजी
का आध्यात्मिक उपकार किया था। इसके एवज में वह उनसे कुछ भी मांग पाने के योग्य थी।
उसने विश्वामित्र को निरन्तर अपनी स्मृति में बनाये रखने के लिए उनसे सन्तान की मांग
की। इससे मेनका ने शकुन्तला को पुत्रीरूप से जन्म दिया।
रमाशंकर जमैयार
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