भारत की प्राचीन समाजिक
व्यवस्था में कई प्रकार की विसंगतियाँ हैं। इनमें अन्याय आधारित व्यवस्थाएँ एवं परम्पराएँ
भी हैं जिसके लिए मुख्यरूप से धार्मिक सिद्धान्तों को दोषी माना जाता है। यही कारण
है कि हिन्दू धर्म के कई मूलभूत सिद्धान्तों को विद्वानों द्वारा रूढ़िवादी और
अन्धविश्वासजनित भी कहा गया है। भारत की दलित जातियाँ ऐसी रूढ़िवादिता और
अन्धविश्वास का शिकार हुई हैं। इनमें से कई जातियाँ तो छूआछूतरूप विषमताओँ के
शिकार हैं और रूढ़िवादी समाज इन्हें मन्दिरों में प्रवेश तक की इजाजत नहीं देना
चाहता। राज्य-सत्ता ऐसी विषमताओं को स्वीकार नहीं करती, यही उनके लिए सन्तोष की
बात है।
स्वामी विवेकानन्द से लेकर महात्मा गाँधी तक ने हिन्दू-धर्म
(सनातन धर्म) की अच्छाईयों की विवेचना की हैं। इसे उदारवादी एवं भोगवाद का विरोधी
अर्थात् आध्यात्मवादी बताया है। इसलिए, सहज प्रश्न उठता है कि ऐसा हो तो फिर इसमें
ऊँच-नीच और छूत-अछूत जैसे भेदभाव कहाँ से आए और कब से आए?
(1) पुराण और मनु-स्मृति
धर्म के तथाकथित मठाधीशों द्वारा पुराणों और मनु-स्मृति के आधार
पर बताया जाता है कि ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की
उत्पत्ति स्वयं की है और यह रचना जिस प्रकार से की है, वह स्वतः ऊँच-नीच के भेद का
नियोजक है। इसके लिए विष्णु-पुराण के निम्नांकित श्लोक को प्रस्तुत किया जाता है—ब्राह्मणाः
क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम। पादोरुवक्षःस्थलतो मुखतश्च
समुद्गता।।(विष्णु पुराण, 1/6/6)।। अर्थात्, ब्रह्माजी के पैर (चरणों) से शूद्र, जानु
से वैश्य, वक्षःस्थल से क्षत्रिय तथा मुख से ब्राह्मण की उत्तपत्ति हुई।
इस श्लोक का अर्थ तो यही है जिसके आधार पर धर्मसत्ता के मठाधीश यह
समझने-समझाने में सफल हो जाते हैं कि ईश्वर ने ही ऊँच-नीच के भेदभाव के साथ चार
प्रकार के मुष्यों की उत्पत्ति की। यह व्याख्या ठीक वैसी ही है, जैसे वकील
कचहरियों में किसी कानून की धारा की कुतार्किक व्याख्या अपने मुव्वकिल के स्वार्थ
के सन्दर्भ में कर दिया करते हैं।
हम यहाँ बता दें कि ब्रह्माजी ने चार प्रकार की जो रचना की, वह
रचना मुष्य की नहीं, बल्कि वर्णों की थी—सर्वाश्चातुर्वण्यमिदं ततः (वि.पु.,
1/6/5)।। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि मनुष्य सत्ता या प्राणी-बोधक शब्द है,
जबकि वर्ण गुण-बोधक शब्द है। वैसे भी, वर्ण का अर्थ होता है रंग, इसलिए यह
गुणात्मक शब्द है। हम यह कह सकते हैं कि ब्रह्माजी ने मनुष्य के चार सामर्थ्यों (गुणों)
को भी उत्पन्न किया। वे हैं—ज्ञान-शक्ति (ब्राह्मण-वर्ण), बल-शक्ति (क्षत्रिय-वर्ण),
अर्थ-शक्ति (वैश्य-वर्ण) और सेवा-शक्ति (शूद्र-वर्ण)।
डार्विन ने अपने सापेक्षता सिद्धान्त के अन्तर्गत बताया है कि
प्रारम्भिक मनुष्य की उत्पत्ति वनमानुष से उसकी अगली पीढ़ी के रूप में हुई, इसलिए
आदि-मानव पशु की भाँति ज्ञान से शून्य था। इसके ठीक विपरीत, पुराण का ऊपरोक्त
सिद्धान्त बताता है ईश्वर ने मनुष्य के लिए बुद्धि (ज्ञान), बल, अर्थ और सेवा का
सामर्थ्य भी आरम्भ से ही प्रदान किया था। इस वैज्ञानिक कथ्य की व्याख्या हम समाज
को विकृत करने वाले सिद्धान्त के रूप में कर बैठें तो हमसे अधिक मूर्ख कौन होगा?
यहाँ सुस्पष्ट है कि यहाँ जिन्हें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का नाम दिया
गया है, वे मनुष्य नहीं, मनुष्य की क्षमताओं अर्थात् गुणों के नाम हैं। इसलिए,
वर्णों के आधार पर मनुष्य को वंशानुगत रूप से ऊँच-नीच में वर्गीकृत नहीं किया जा
सकता। ऐसा करना धार्मिक सिद्धान्तों एवं कथ्यों का अपमान होगा।
(2)
शुद्धि की भावना और कर्म-काण्ड का शुद्धि-मन्त्र
ऊँच-नीच के भेदभाव का एक आधार है शुद्धि की स्थिति अर्थात्
पवित्रता और अपवित्रता। धार्मिक कर्मकाण्डों में गंगाजल से शुद्धिकरण किया जाता
है, क्योकिं यह माना जाता है गंगा की उत्पत्ति भगवान विष्णु के चरणों से हुई है,
इसलिए यह सबसे शुद्ध है। पुराणों में भी स्वीकार किया गया है कि गंगाजी की
उत्पत्ति भगवान विष्णु के चरणों से हुई है। ध्रुव तारे को भगवान विष्णु का
पद-स्थानीय लोक माना गया है, इसलिए उसे विष्णु-पद भी कहा गया है। इसी विष्णुपद से
पाण्डुवर्ण हुई-सी सर्वपापहारिणी गंगा उत्पन्न हुई हैं—ततः प्रभवति
ब्रह्मन्सर्वपापहरा सरित्। गङ्गा देवाङ्गनाङ्गानामनुलेपनपिढ्जराः।।(वि.पु.,2/8/108)।।
जरा विचार करें कि भगवान के चरणों से निकला जल जब इतना महिमाशाली हो सकता है, तब स्वयं
भगवान विष्णु की महिमा कैसी होगी!
पूजनादि अवसरों पर पंडित हाथ में जल थमा कर शुद्धि-मन्त्र का
उच्चारण करते हैं और उस जल को देह पर छिड़कने को कहते हैं। माना जाता है कि इससे
शुद्धि हो जाती है। प्रश्न यह है कि पात्र में गंगाजल लिया ही जाता है, फिर
शुद्धि-मन्त्र की क्या आवश्यकता?
इस
आवश्यकता को समझने के लिए हमें शुद्धि-मन्त्र का अर्थ समझना होगा। मन्त्र और
मन्त्र का अर्थ निम्न प्रकार से है—
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थां गतोऽपि वा, यः स्मरेत्
पुण्डरीकाक्षं सः वाह्याभ्यान्तरः शुचिः। अर्थात्, कोई व्यक्ति चाहे पवित्र हो या
अपवित्र (अपवित्रः पवित्रो वा); वह चाहे शौचावस्था (अशुद्ध अवस्था) में हो या
अशौचावस्था (शुद्ध अवस्था) में (सर्वावस्थां गतोऽपि वा) [अवस्था दो प्रकार की होती है—शौचावस्था और अशोचावस्था, इसलिए सर्वावस्थां
पद का उपयोग किया गया है], जैसे ही वह भगवान विष्णु
(पुण्डरीकाक्ष) का स्मरण करता है (यःस्मरेत् पुण्डरीकाक्षं), वह बाहर और भीतर से
पवित्र हो जाता है (सः वाह्याभ्यान्तरः शुचिः)।
इस शुद्धि-मन्त्र से स्पष्ट है कि वह भगवान हरि हैं जिन्हें स्मरण
कर लेने मात्र से ही मनुष्य शुद्ध और पवित्र हो जाता है। इसलिए, कोई व्यक्ति नीच
जाति का (अपवित्र या पतित) ही क्यों न हो, जैसे ही भगवान का स्मरण करता है, वह उच्च-जाति
की तरह पवित्र हो जाता है। हम जिस अछूत कहते हैं, वह जब फूल-अक्षत आदि ग्रहण कर
मन्दिर की ओर चलता है, तो निश्चय ही उसे भगवान की याद आई है। भगवान की याद आने
मात्र से ही वह स्वतः पवित्र हो जाता है। फिर, उसे मन्दिर में प्रवेश से कौन रोक
सकता है?
भगवान के स्मरण मात्र से पवित्र हो जाने का यह सिद्धान्त ऊँच-नीच
के सारे भेद-भाव के ध्वस्त करता है, फिर भी यदि विभेद की नीति कायम है तो यह धर्म
के सत्ताधीशों-मठाधीशों की तानाशाही है या उनका अज्ञान है।
(3) ईश्वर सर्व-शक्तिमान है
वेदादि सभी ग्रन्थों में ईश्वर को सर्वशक्तिमान बताया गया है। जो
ईश्वर और उसकी शक्ति पर विश्वास करता है, उसे ही आस्तिक कहा जाता है और जो ईश्वर
या उसकी शक्ति पर विश्वास नहीं करता उसे नास्तिक कहा जाता है--हिन्दू धर्म का यह
सर्वभौम सिद्धान्त है, इसे स्मरण रखना आवश्यक है।
अब, शक्ति के धनात्मक और ऋणात्मक दो भेद होते
हैं, इसलिए शक्ति के दो प्रकार हैं—दैवी (कल्याणात्मक शक्तियाँ) और आसुरी/शैतानी
(अकल्याणात्मक शक्तियाँ)। ईश्वर की शक्ति इन दोनों ही भेदों से परे और सर्वोपरि
होती है, इसलिए उसकी शक्ति आसुरी-शक्ति से भी श्रेष्ठ है और दैवी-शक्ति से भी। यदि
कोई व्यक्ति यह मानता है कि किसी अछूत से छुला जाने पर ईश्वर स्वयं अपवित्र हो गया
है, इसे क्या नास्तिकता नहीं कहेंगे? इसलिए, जो व्यक्ति चाहे वह धर्म की सत्ता का
कितना भी बड़ा मठाधीश क्यों न हो, किसी को अछूत बता कर यह मान लेता है कि उसके
स्पर्श से भगवान स्वयं अपवित्र हो जाता है, वह स्वयं सबसे बड़ा नास्तिक है, अधर्मी
है , क्योंकि ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है!
(4) ईश्वर और पारस-पत्थर
ईश्वर की तुलना हम पारस-पत्थर से कर सकते हैं। जिस प्रकार पारस के
स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता है, वैसे ही ईश्वर का स्मरण-मात्र से अपवित्र भी
पवित्र हो जाता है (जैसा कि शुद्धि-मन्त्र में कहा गया है)। अब, यदि पारसमणि ही
लोहे के स्पर्श से शक्तिहीन हो जाए, तो वह कैसा पारसमणि?
(5) अपवित्रता को दूर करने वाला वैद्य है ईश्वर
यदि हम यह मानते हैं कि कोई मनुष्य अधूत है, पतित है, अपवित्र है
तो उसका एकमात्र चिकित्सक स्वयं ईश्वर है। उसके मन्दिरों की स्थापना इन्हीं लोगों
के लिये की गई है। ऐसी स्थिति में कोई आदमी यदि रोगी को चिकित्सक के पास जाने से
रोकता है तो एक ओर तो रोगी (अपवित्र व्यक्ति) पर अत्याचार करता है और दूसरी ओर
स्वयं ईश्वर के अधिकार को प्रतिबन्धित करता होता है। ऐसे लोगों को क्या घोर पापी
नहीं कहा जायेगा?
इसलिए, छूआ-छूत की भावना के पीछे नास्तिकता है, अधर्म है और
पापाचार है। हमें अछूतों की शुद्धि की जरूरत नहीं, अपने आप की शुद्धि की जरूरत है,
क्योंकि धार्मिक सिद्धान्तों के अनुरूप हम स्वयं पाप कर रहे हैं, नास्तकता स्वीकार
किये हुए हैं और स्वयं को सबसे बड़ा धार्मिक बता रहे हैं।
(अगले अंक में भी)
रमाशंकर जमैयार