रविवार, 18 सितंबर 2011

दलित समाज और छूआछूत की रूढ़िवादी परम्परा


भारत की प्राचीन समाजिक व्यवस्था में कई प्रकार की विसंगतियाँ हैं। इनमें अन्याय आधारित व्यवस्थाएँ एवं परम्पराएँ भी हैं जिसके लिए मुख्यरूप से धार्मिक सिद्धान्तों को दोषी माना जाता है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म के कई मूलभूत सिद्धान्तों को विद्वानों द्वारा रूढ़िवादी और अन्धविश्वासजनित भी कहा गया है। भारत की दलित जातियाँ ऐसी रूढ़िवादिता और अन्धविश्वास का शिकार हुई हैं। इनमें से कई जातियाँ तो छूआछूतरूप विषमताओँ के शिकार हैं और रूढ़िवादी समाज इन्हें मन्दिरों में प्रवेश तक की इजाजत नहीं देना चाहता। राज्य-सत्ता ऐसी विषमताओं को स्वीकार नहीं करती, यही उनके लिए सन्तोष की बात है।
      स्वामी विवेकानन्द से लेकर महात्मा गाँधी तक ने हिन्दू-धर्म (सनातन धर्म) की अच्छाईयों की विवेचना की हैं। इसे उदारवादी एवं भोगवाद का विरोधी अर्थात् आध्यात्मवादी बताया है। इसलिए, सहज प्रश्न उठता है कि ऐसा हो तो फिर इसमें ऊँच-नीच और छूत-अछूत जैसे भेदभाव कहाँ से आए और कब से आए?
 (1) पुराण और मनु-स्मृति
      धर्म के तथाकथित मठाधीशों द्वारा पुराणों और मनु-स्मृति के आधार पर बताया जाता है कि ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की उत्पत्ति स्वयं की है और यह रचना जिस प्रकार से की है, वह स्वतः ऊँच-नीच के भेद का नियोजक है। इसके लिए विष्णु-पुराण के निम्नांकित श्लोक को प्रस्तुत किया जाता है—ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम। पादोरुवक्षःस्थलतो मुखतश्च समुद्गता।।(विष्णु पुराण, 1/6/6)।। अर्थात्, ब्रह्माजी के पैर (चरणों) से शूद्र, जानु से वैश्य, वक्षःस्थल से क्षत्रिय तथा मुख से ब्राह्मण की उत्तपत्ति हुई।
      इस श्लोक का अर्थ तो यही है जिसके आधार पर धर्मसत्ता के मठाधीश यह समझने-समझाने में सफल हो जाते हैं कि ईश्वर ने ही ऊँच-नीच के भेदभाव के साथ चार प्रकार के मुष्यों की उत्पत्ति की। यह व्याख्या ठीक वैसी ही है, जैसे वकील कचहरियों में किसी कानून की धारा की कुतार्किक व्याख्या अपने मुव्वकिल के स्वार्थ के सन्दर्भ में कर दिया करते हैं।
      हम यहाँ बता दें कि ब्रह्माजी ने चार प्रकार की जो रचना की, वह रचना मुष्य की नहीं, बल्कि वर्णों की थी—सर्वाश्चातुर्वण्यमिदं ततः (वि.पु., 1/6/5)।। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि मनुष्य सत्ता या प्राणी-बोधक शब्द है, जबकि वर्ण गुण-बोधक शब्द है। वैसे भी, वर्ण का अर्थ होता है रंग, इसलिए यह गुणात्मक शब्द है। हम यह कह सकते हैं कि ब्रह्माजी ने मनुष्य के चार सामर्थ्यों (गुणों) को भी उत्पन्न किया। वे हैं—ज्ञान-शक्ति (ब्राह्मण-वर्ण), बल-शक्ति (क्षत्रिय-वर्ण), अर्थ-शक्ति (वैश्य-वर्ण) और सेवा-शक्ति (शूद्र-वर्ण)।
      डार्विन ने अपने सापेक्षता सिद्धान्त के अन्तर्गत बताया है कि प्रारम्भिक मनुष्य की उत्पत्ति वनमानुष से उसकी अगली पीढ़ी के रूप में हुई, इसलिए आदि-मानव पशु की भाँति ज्ञान से शून्य था। इसके ठीक विपरीत, पुराण का ऊपरोक्त सिद्धान्त बताता है ईश्वर ने मनुष्य के लिए बुद्धि (ज्ञान), बल, अर्थ और सेवा का सामर्थ्य भी आरम्भ से ही प्रदान किया था। इस वैज्ञानिक कथ्य की व्याख्या हम समाज को विकृत करने वाले सिद्धान्त के रूप में कर बैठें तो हमसे अधिक मूर्ख कौन होगा? यहाँ सुस्पष्ट है कि यहाँ जिन्हें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का नाम दिया गया है, वे मनुष्य नहीं, मनुष्य की क्षमताओं अर्थात् गुणों के नाम हैं। इसलिए, वर्णों के आधार पर मनुष्य को वंशानुगत रूप से ऊँच-नीच में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता। ऐसा करना धार्मिक सिद्धान्तों एवं कथ्यों का अपमान होगा।
  (2) शुद्धि की भावना और कर्म-काण्ड का शुद्धि-मन्त्र
      ऊँच-नीच के भेदभाव का एक आधार है शुद्धि की स्थिति अर्थात् पवित्रता और अपवित्रता। धार्मिक कर्मकाण्डों में गंगाजल से शुद्धिकरण किया जाता है, क्योकिं यह माना जाता है गंगा की उत्पत्ति भगवान विष्णु के चरणों से हुई है, इसलिए यह सबसे शुद्ध है। पुराणों में भी स्वीकार किया गया है कि गंगाजी की उत्पत्ति भगवान विष्णु के चरणों से हुई है। ध्रुव तारे को भगवान विष्णु का पद-स्थानीय लोक माना गया है, इसलिए उसे विष्णु-पद भी कहा गया है। इसी विष्णुपद से पाण्डुवर्ण हुई-सी सर्वपापहारिणी गंगा उत्पन्न हुई हैं—ततः प्रभवति ब्रह्मन्सर्वपापहरा सरित्। गङ्गा देवाङ्गनाङ्गानामनुलेपनपिढ्जराः।।(वि.पु.,2/8/108)।। जरा विचार करें कि भगवान के चरणों से निकला जल जब इतना महिमाशाली हो सकता है, तब स्वयं भगवान विष्णु की महिमा कैसी होगी!
      पूजनादि अवसरों पर पंडित हाथ में जल थमा कर शुद्धि-मन्त्र का उच्चारण करते हैं और उस जल को देह पर छिड़कने को कहते हैं। माना जाता है कि इससे शुद्धि हो जाती है। प्रश्न यह है कि पात्र में गंगाजल लिया ही जाता है, फिर शुद्धि-मन्त्र की क्या आवश्यकता?
      इस आवश्यकता को समझने के लिए हमें शुद्धि-मन्त्र का अर्थ समझना होगा। मन्त्र और मन्त्र का अर्थ निम्न प्रकार से है—
      ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थां गतोऽपि वा, यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं सः वाह्याभ्यान्तरः शुचिः। अर्थात्, कोई व्यक्ति चाहे पवित्र हो या अपवित्र (अपवित्रः पवित्रो वा); वह चाहे शौचावस्था (अशुद्ध अवस्था) में हो या अशौचावस्था (शुद्ध अवस्था) में (सर्वावस्थां गतोऽपि वा) [अवस्था दो प्रकार की होती है—शौचावस्था और अशोचावस्था, इसलिए सर्वावस्थां पद का उपयोग किया गया है], जैसे ही वह भगवान विष्णु (पुण्डरीकाक्ष) का स्मरण करता है (यःस्मरेत् पुण्डरीकाक्षं), वह बाहर और भीतर से पवित्र हो जाता है (सः वाह्याभ्यान्तरः शुचिः)।
      इस शुद्धि-मन्त्र से स्पष्ट है कि वह भगवान हरि हैं जिन्हें स्मरण कर लेने मात्र से ही मनुष्य शुद्ध और पवित्र हो जाता है। इसलिए, कोई व्यक्ति नीच जाति का (अपवित्र या पतित) ही क्यों न हो, जैसे ही भगवान का स्मरण करता है, वह उच्च-जाति की तरह पवित्र हो जाता है। हम जिस अछूत कहते हैं, वह जब फूल-अक्षत आदि ग्रहण कर मन्दिर की ओर चलता है, तो निश्चय ही उसे भगवान की याद आई है। भगवान की याद आने मात्र से ही वह स्वतः पवित्र हो जाता है। फिर, उसे मन्दिर में प्रवेश से कौन रोक सकता है?
      भगवान के स्मरण मात्र से पवित्र हो जाने का यह सिद्धान्त ऊँच-नीच के सारे भेद-भाव के ध्वस्त करता है, फिर भी यदि विभेद की नीति कायम है तो यह धर्म के सत्ताधीशों-मठाधीशों की तानाशाही है या उनका अज्ञान है।
 (3) ईश्वर सर्व-शक्तिमान है
      वेदादि सभी ग्रन्थों में ईश्वर को सर्वशक्तिमान बताया गया है। जो ईश्वर और उसकी शक्ति पर विश्वास करता है, उसे ही आस्तिक कहा जाता है और जो ईश्वर या उसकी शक्ति पर विश्वास नहीं करता उसे नास्तिक कहा जाता है--हिन्दू धर्म का यह सर्वभौम सिद्धान्त है, इसे स्मरण रखना आवश्यक है।
          अब, शक्ति के धनात्मक और ऋणात्मक दो भेद होते हैं, इसलिए शक्ति के दो प्रकार हैं—दैवी (कल्याणात्मक शक्तियाँ) और आसुरी/शैतानी (अकल्याणात्मक शक्तियाँ)। ईश्वर की शक्ति इन दोनों ही भेदों से परे और सर्वोपरि होती है, इसलिए उसकी शक्ति आसुरी-शक्ति से भी श्रेष्ठ है और दैवी-शक्ति से भी। यदि कोई व्यक्ति यह मानता है कि किसी अछूत से छुला जाने पर ईश्वर स्वयं अपवित्र हो गया है, इसे क्या नास्तिकता नहीं कहेंगे? इसलिए, जो व्यक्ति चाहे वह धर्म की सत्ता का कितना भी बड़ा मठाधीश क्यों न हो, किसी को अछूत बता कर यह मान लेता है कि उसके स्पर्श से भगवान स्वयं अपवित्र हो जाता है, वह स्वयं सबसे बड़ा नास्तिक है, अधर्मी है , क्योंकि ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है!
 (4) ईश्वर और पारस-पत्थर
      ईश्वर की तुलना हम पारस-पत्थर से कर सकते हैं। जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता है, वैसे ही ईश्वर का स्मरण-मात्र से अपवित्र भी पवित्र हो जाता है (जैसा कि शुद्धि-मन्त्र में कहा गया है)। अब, यदि पारसमणि ही लोहे के स्पर्श से शक्तिहीन हो जाए, तो वह कैसा पारसमणि?
 (5) अपवित्रता को दूर करने वाला वैद्य है ईश्वर
      यदि हम यह मानते हैं कि कोई मनुष्य अधूत है, पतित है, अपवित्र है तो उसका एकमात्र चिकित्सक स्वयं ईश्वर है। उसके मन्दिरों की स्थापना इन्हीं लोगों के लिये की गई है। ऐसी स्थिति में कोई आदमी यदि रोगी को चिकित्सक के पास जाने से रोकता है तो एक ओर तो रोगी (अपवित्र व्यक्ति) पर अत्याचार करता है और दूसरी ओर स्वयं ईश्वर के अधिकार को प्रतिबन्धित करता होता है। ऐसे लोगों को क्या घोर पापी नहीं कहा जायेगा?
      इसलिए, छूआ-छूत की भावना के पीछे नास्तिकता है, अधर्म है और पापाचार है। हमें अछूतों की शुद्धि की जरूरत नहीं, अपने आप की शुद्धि की जरूरत है, क्योंकि धार्मिक सिद्धान्तों के अनुरूप हम स्वयं पाप कर रहे हैं, नास्तकता स्वीकार किये हुए हैं और स्वयं को सबसे बड़ा धार्मिक बता रहे हैं।
(अगले अंक में भी)
रमाशंकर जमैयार

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

सैन्धव-सभ्यता के संस्थापक श्रीकृष्ण थे


       आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार भारतीय इतिहास का प्रारम्भ आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले सैन्धव-घाटी सभ्यता की स्थापना से हुआ था। लेकिन, पौराणिक-इतिहास के अनुसार भारतीय इतिहास इतना प्राचीन है कि इसे सनातन भी कहा जा सकता है। आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले तो कलियुग का आरम्भ हुआ था-- यदैव भगवान्विष्णोरंशो यातो दिवं द्विज। वसुदेवकुलोद्भूतस्तदैवात्रागतः कलिः।।(विष्णु-पुराण, 4/24/108)।। कलियुग से पूर्व द्वापर युग था। श्रीकृष्ण और कौरव-पाण्डव आदि द्वापर-कलि के सन्धिकाल के लोग थे। द्वापर से पूर्व त्रेता-काल था और उससे पूर्व सत्युग था। चार युगों की चौकड़ी को चतुर्युग कहा जाता है-कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिश्चैव चतुर्युगम (विष्णु पुराण, 1/3/15)। ऐसे इकहत्तर चतुर्युगों का एक मनव्तर होता है—चतुर्युगाणां संख्याता साधिका ह्येकसप्ततिः (वि.पु.,1/3/18)। वर्तमान मनवन्तर का नाम वैवस्वत मन्वन्तर है। इस मन्वतर के सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं। अट्ठाईसवाँ चतुर्युग चल रहा है। इस चतुर्युग के तीन युग भी बीत चुके हैं और यह कलियुग चल रहा है। अतः यह कह देना कि भारतीय इतिहास का प्रारम्भ सैन्धव घाटी सभ्यता से हुआ, षड़यन्त्रपूर्वक रचित विकृति है।
      सैन्धव-घाटी सभ्यता की अपनी वास्तविकता है। इसकी स्थापना भगवान श्रीकृष्ण के काल में हुई थी, इसलिए पाँच हजार वर्ष से अधिक पुरानी सभ्यता है। 1922 ईस्वी में हड़प्पा-आदि स्थलों का पुरातात्विक उत्खनन् किया गया था जिससे अनेक पुरातात्विक प्रमाण मिले।
       विदित हो कि यह विदेशी दासता का काल था। 1857 ईस्वी में महारानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, वीर कुँअर सिंह, मंगल पाँडे सरीखे राजघराने से लेकर अंग्रेजी सेना के सिपाहियों तक ने मिलकर राष्ट्रीय एकता का परचम लहराते हुए प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का युद्ध लड़ा था। भविष्य में ऐसी राष्ट्रीय एकता कभी न बन पाये, इस दृष्टि से अंग्रेजी-सत्ता ने भारतीय संस्कृति और इतिहास को विकृत करने का कार्य अंग्रेजी-सत्ता सम्पोषित इतिहासकारों को दिया।
      इन इतिहासकारों ने उत्खनन् से प्राप्त पुरातात्विक प्रमाणों की वास्तविक व्याख्या इस प्रकार है—
1.  सोलह की संख्या का सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से
      उत्खनन् से प्राप्त प्रमाणों से ज्ञात हुआ कि इस सभ्यता के लोगों ने 16 की संख्या को इकाई निर्धारण का आधार बना रखा था। 16 आनों का एक रूपया, 16 छटाँक का एक सेर आदि। सोलह की संख्या का यह आधार पिछले पाँच हजार साल से आजादी के बाद भी तबतक चलता रहा जब तक कि भारत की सरकार ने दशमलव-पद्धति नहीं लागू की।
       प्रश्न यह है कि लोगों ने 'सोलह' की संख्या को ऐसा महत्व क्यों दिया? भारतीय इतिहास की वास्तविकता को विकृत करने के लिये ये इतिहासकार इस विन्दु को गोल कर गये हैं। हम इस प्रश्न को पुनः खड़ा करते हैं।
      सोलह की संख्या का सम्बन्ध सीधे-सीधे भगवान श्रीकृष्ण से है। उनका जन्म चन्द्रवंश में हुआ था। कालयवन को अपना परिचय देते हुए श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि वे चन्द्रवंश के अन्तर्गत यदुकुल में वसुदेवजी के पुत्ररूप से उत्पन्न हुए हैं—वसुदेवस्य तनयो यदोर्वंशसमुद्भवः। विदित हो कि महाराज यदु चन्द्रवंशी थे।
      वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु आदि उत्पन्न सन्तान-परम्परा को सूर्यवंश कहा जाता है, जबकि वैवस्वत मनु की पुत्री इला से उत्पन्न सन्तति-परम्परा को चन्द्रवंश कहा जाता है। इला का विवाह चन्द्रमा के पुत्र बुध से हुआ था जिससे पुरुरवा का जन्म हुआ। इसलिए यह राजवंश चन्द्रवंशी कहलाया।
      भगवान श्रीकृष्ण चन्द्रवंशी थे। उन्हें पूर्ण-ब्रह्म का अवतार माना जाता है। चन्द्रमा की सोलह कलाएँ होती हैं, इसलिए कहा जाता है कि श्रीकृष्ण सोलहों कलाओं से पूर्ण थे। इस आधार पर सोलह की संख्या को महत्ता मिली। इससे प्रमाणित होता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता का निकटतम सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से था।
2.  श्री कृष्ण आनर्त्त-देश के शासक थे
      जिस क्षेत्र को सैन्धव-सभ्यता का क्षेत्र कहा जाता है, उसे पुराणों में आनर्त्त-देश कहा गया है। बलरामजी का विवाह जिस रेवती नामक जिस कन्या से हुआ था, उस कन्या के पिता रेवतजी ही उस देश के नरेश थे। रेवती से विवाह के कारण इस राज्य का उत्तराधिकार कृष्ण-बलराम को मिल गया।
      पूर्व में देश की राजधानी का नाम कुशस्थनी था। राजधानी का यह क्षेत्र समुद्र-तल में समा गया था, इसलिए श्रीकृष्ण ने राजधानी का वह क्षेत्र समुद्र से माँगकर वहाँ द्वारका नामक नगरी बसायी—कुशस्थली या तव भूप रम्या/पुरी पराद्भूदमरावतीव। सा द्वारका सम्प्रति तत्र चास्ते/स केशवांशो बलदेवनाम।।(विष्णु पुराण, 4/1/91)।।
3.  श्रीकृष्ण ने नागरी-सभ्यता की स्थापना की
      पुराणों में बताया गया है कि कालयवन के संहार के पूर्व ही भगवान ने द्वारका नगरी बसा ली थी और उग्रसेन समेत सभी यदुवंशियों को आनर्त्त-देश में स्थापित कर दिया था। उन्होंने अपनी राजधानी के लिए समुद्र से जो भूमि मांगी, वह समुद्र-गर्भ में समायी कुशस्थली ही थी। यहाँ उन्होंने नागरी-सभ्यता के अनुरूप न केवल अपनी राजधानी बनायी, बल्कि उसी के समान नागरी-सभ्यता का विस्तार अपने सम्पूर्ण राज्य-क्षेत्र में भी किया। श्रीमद्भागवत में विवरण है कि इसके लिये उन्होंने देवताओं के अभियन्ता विश्वकर्माजी की सेवाएँ लीं। यही कारण है कि समस्त सैन्धव-सभ्यता में नागरी-सभ्यता के प्रमाण मिलते हैं।
4.  देवी-देवता और उपासना-व्यवस्था
      श्रीकृष्ण स्वयं ही भगवान् विष्णु के साक्षात् अवतार थे। उन्होंने भगवद्गीता में स्वयं को बारम्बार ईश्वर रूप से प्रतिपादित किया है। अर्थात्, वह भगवान विष्णु के जीवित स्वरूप थे। भारतीय संस्कृति की परिपाटी है कि जीवित व्यक्ति की प्रतिमाएँ नहीं लगायी जातीं, इसलिए सैन्धव-सभ्यता में कहीं भगवान विष्णु की प्रतिमा नहीं मिलती।
      जिस श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था, ठीक उसी समय उनकी पराशक्ति ने यशोदा के गर्भ से अवतार लिया था। कृष्ण को यशोदा के पास और इस कन्या को कंस के कारागार में पहुँचा दिया गया था। कंस ने इस कन्या को ही देवकी की आठवीं सन्तान मान कर शिला पर पटक कर मारना चाहा तो उसके हाथों से छूटकर वह आकाश की दिशा में ऊपर जाकर देवीरूप से प्रकट हो गईं। उन्होंने कंस को बताया कि दुनिया का तारणहार और तुम्हारा संहारक जन्म ले चुका है। भगवती मनुष्यरूप में स्थित नहीं हुईं। उनके इस स्वरूप की उपासना सम्पूर्ण सैन्धव-सभ्यता में की जाती थी। इसलिए मातृ-शक्तियों की प्रतिमाएं सैन्धव-क्षेत्र में मिलीं।
      भगवान शिव और रुद्र के अनेकानेक रूपों की पूजा-उपासना सम्पूर्ण भारत में सदा से चलती आ रही है। चाहे कश्मीर में अमरनाथ हो या दक्षिण-तट पर रामेश्वरम, चाहे कैलाश पर्वत हो या काशी या उज्जैन।
5.  आनर्त्त-देश (सैन्धव-सभ्यता) का सर्वनाश  
       यदुवंशियों के विनाश की कथा पुराणों में वर्णित है—कृत्वा भारावतरणं भुवो हत्वाखिलानृपान्। शापवयाजेन विप्रणामुपसंहृतवान्कुलम्।।(वि.पु. 5/37/3)।। अर्थात् सम्पूर्ण पापी राजाओं (कुछ को स्वयं एवं कुछ का महाभारत युद्ध के म्ध्यम से) संहार  कर के उन्होंने पृथ्वी का भारावतरण किया और फिर ब्राह्मणों के शाप के कारण अपने कुल का भी उपसंहार कर दिया। यादवों की विशाल सेना, उसके सेनापति और सरदार आपस में ही उलझ कर एक दूसरे लड़कर मारे गये।
      फिर जिस दिन श्रीकृष्ण का देहावसान (परलोकगमन) हुआ, समुद्र की बाढ़ से आनर्त्त-देश का सम्पूर्ण क्षेत्र आप्लावित हो गया और द्वारका नगरी भी पुनः समुद्र में डूब गई—प्लावयामास तां शून्यां द्वारकं च महोदधिः।
      यह सम्पूर्ण पौराणिक विवरण एवं सैन्धव-सभ्यता के पुरातात्वि प्रमाण एक दूसरे से मेल खाते हैं। द्वारका-नगरी आज भी गुजरात समुद्र-तट पर है। वैज्ञानिकों ने समुद्र में डूबी द्वारका का भी पता लगा लिया है। सिन्धु नदी के क्षेत्र से लेकर गुजरात आदि का बहुत बड़ा क्षेत्र आनर्त्त-देश की सीमा के अन्तर्गत था। इसी क्षेत्र को आधुनिक इतिहासकारों ने सैन्धव-सभ्यता का नाम दिया है।
      अतएव सुनिश्चित रूप से प्रमाणित होता है कि भगवान श्रीकृष्ण द्वारा द्वारका-नगरी को केन्द्र बना कर जिस आनर्त्त-साम्राज्य की स्थापना की गई थी, वह वास्तव यादवी-सभ्यता का क्षेत्र था और इसे ही इतिहासकारों ने सैन्धव-सभ्यता का नाम दिया है।
रमाशंकर जमैयारआधुनिक इतिहासकारों के अनुसार भारतीय इतिहास का प्रारम्भ आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले सैन्धव-घाटी सभ्यता की स्थापना से हुआ था। लेकिन, पौराणिक-इतिहास के अनुसार भारतीय इतिहास इतना प्राचीन है कि इसे सनातन भी कहा जा सकता है। आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले तो कलियुग का आरम्भ हुआ था-- यदैव भगवान्विष्णोरंशो यातो दिवं द्विज। वसुदेवकुलोद्भूतस्तदैवात्रागतः कलिः।।(विष्णु-पुराण, 4/24/108)।। कलियुग से पूर्व द्वापर युग था। श्रीकृष्ण और कौरव-पाण्डव आदि द्वापर-कलि के सन्धिकाल के लोग थे। द्वापर से पूर्व त्रेता-काल था और उससे पूर्व सत्युग था। चार युगों की चौकड़ी को चतुर्युग कहा जाता है-कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिश्चैव चतुर्युगम (विष्णु पुराण, 1/3/15)। ऐसे इकहत्तर चतुर्युगों का एक मनव्तर होता है—चतुर्युगाणां संख्याता साधिका ह्येकसप्ततिः (वि.पु.,1/3/18)। वर्तमान मनवन्तर का नाम वैवस्वत मन्वन्तर है। इस मन्वतर के सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं। अट्ठाईसवाँ चतुर्युग चल रहा है। इस चतुर्युग के तीन युग भी बीत चुके हैं और यह कलियुग चल रहा है। अतः यह कह देना कि भारतीय इतिहास का प्रारम्भ सैन्धव घाटी सभ्यता से हुआ, षड़यन्त्रपूर्वक रचित विकृति है।
      सैन्धव-घाटी सभ्यता की अपनी वास्तविकता है। इसकी स्थापना भगवान श्रीकृष्ण के काल में हुई थी, इसलिए पाँच हजार वर्ष से अधिक पुरानी सभ्यता है। 1922 ईस्वी में हड़प्पा-आदि स्थलों का पुरातात्विक उत्खनन् किया गया था जिससे अनेक पुरातात्विक प्रमाण मिले।
       विदित हो कि यह विदेशी दासता का काल था। 1857 ईस्वी में महारानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, वीर कुँअर सिंह, मंगल पाँडे सरीखे राजघराने से लेकर अंग्रेजी सेना के सिपाहियों तक ने मिलकर राष्ट्रीय एकता का परचम लहराते हुए प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का युद्ध लड़ा था। भविष्य में ऐसी राष्ट्रीय एकता कभी न बन पाये, इस दृष्टि से अंग्रेजी-सत्ता ने भारतीय संस्कृति और इतिहास को विकृत करने का कार्य अंग्रेजी-सत्ता सम्पोषित इतिहासकारों को दिया।
      इन इतिहासकारों ने उत्खनन् से प्राप्त पुरातात्विक प्रमाणों की वास्तविक व्याख्या इस प्रकार है—
1.  सोलह की संख्या का सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से
      उत्खनन् से प्राप्त प्रमाणों से ज्ञात हुआ कि इस सभ्यता के लोगों ने 16 की संख्या को इकाई निर्धारण का आधार बना रखा था। 16 आनों का एक रूपया, 16 छटाँक का एक सेर आदि। सोलह की संख्या का यह आधार पिछले पाँच हजार साल से आजादी के बाद भी तबतक चलता रहा जब तक कि भारत की सरकार ने दशमलव-पद्धति नहीं लागू की।
       प्रश्न यह है कि लोगों ने 'सोलह' की संख्या को ऐसा महत्व क्यों दिया? भारतीय इतिहास की वास्तविकता को विकृत करने के लिये ये इतिहासकार इस विन्दु को गोल कर गये हैं। हम इस प्रश्न को पुनः खड़ा करते हैं।
      सोलह की संख्या का सम्बन्ध सीधे-सीधे भगवान श्रीकृष्ण से है। उनका जन्म चन्द्रवंश में हुआ था। कालयवन को अपना परिचय देते हुए श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि वे चन्द्रवंश के अन्तर्गत यदुकुल में वसुदेवजी के पुत्ररूप से उत्पन्न हुए हैं—वसुदेवस्य तनयो यदोर्वंशसमुद्भवः। विदित हो कि महाराज यदु चन्द्रवंशी थे।
      वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु आदि उत्पन्न सन्तान-परम्परा को सूर्यवंश कहा जाता है, जबकि वैवस्वत मनु की पुत्री इला से उत्पन्न सन्तति-परम्परा को चन्द्रवंश कहा जाता है। इला का विवाह चन्द्रमा के पुत्र बुध से हुआ था जिससे पुरुरवा का जन्म हुआ। इसलिए यह राजवंश चन्द्रवंशी कहलाया।
      भगवान श्रीकृष्ण चन्द्रवंशी थे। उन्हें पूर्ण-ब्रह्म का अवतार माना जाता है। चन्द्रमा की सोलह कलाएँ होती हैं, इसलिए कहा जाता है कि श्रीकृष्ण सोलहों कलाओं से पूर्ण थे। इस आधार पर सोलह की संख्या को महत्ता मिली। इससे प्रमाणित होता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता का निकटतम सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से था।
2.  श्री कृष्ण आनर्त्त-देश के शासक थे
      जिस क्षेत्र को सैन्धव-सभ्यता का क्षेत्र कहा जाता है, उसे पुराणों में आनर्त्त-देश कहा गया है। बलरामजी का विवाह जिस रेवती नामक जिस कन्या से हुआ था, उस कन्या के पिता रेवतजी ही उस देश के नरेश थे। रेवती से विवाह के कारण इस राज्य का उत्तराधिकार कृष्ण-बलराम को मिल गया।
      पूर्व में देश की राजधानी का नाम कुशस्थनी था। राजधानी का यह क्षेत्र समुद्र-तल में समा गया था, इसलिए श्रीकृष्ण ने राजधानी का वह क्षेत्र समुद्र से माँगकर वहाँ द्वारका नामक नगरी बसायी—कुशस्थली या तव भूप रम्या/पुरी पराद्भूदमरावतीव। सा द्वारका सम्प्रति तत्र चास्ते/स केशवांशो बलदेवनाम।।(विष्णु पुराण, 4/1/91)।।
3.  श्रीकृष्ण ने नागरी-सभ्यता की स्थापना की
      पुराणों में बताया गया है कि कालयवन के संहार के पूर्व ही भगवान ने द्वारका नगरी बसा ली थी और उग्रसेन समेत सभी यदुवंशियों को आनर्त्त-देश में स्थापित कर दिया था। उन्होंने अपनी राजधानी के लिए समुद्र से जो भूमि मांगी, वह समुद्र-गर्भ में समायी कुशस्थली ही थी। यहाँ उन्होंने नागरी-सभ्यता के अनुरूप न केवल अपनी राजधानी बनायी, बल्कि उसी के समान नागरी-सभ्यता का विस्तार अपने सम्पूर्ण राज्य-क्षेत्र में भी किया। श्रीमद्भागवत में विवरण है कि इसके लिये उन्होंने देवताओं के अभियन्ता विश्वकर्माजी की सेवाएँ लीं। यही कारण है कि समस्त सैन्धव-सभ्यता में नागरी-सभ्यता के प्रमाण मिलते हैं।
4.  देवी-देवता और उपासना-व्यवस्था
      श्रीकृष्ण स्वयं ही भगवान् विष्णु के साक्षात् अवतार थे। उन्होंने भगवद्गीता में स्वयं को बारम्बार ईश्वर रूप से प्रतिपादित किया है। अर्थात्, वह भगवान विष्णु के जीवित स्वरूप थे। भारतीय संस्कृति की परिपाटी है कि जीवित व्यक्ति की प्रतिमाएँ नहीं लगायी जातीं, इसलिए सैन्धव-सभ्यता में कहीं भगवान विष्णु की प्रतिमा नहीं मिलती।
      जिस श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था, ठीक उसी समय उनकी पराशक्ति ने यशोदा के गर्भ से अवतार लिया था। कृष्ण को यशोदा के पास और इस कन्या को कंस के कारागार में पहुँचा दिया गया था। कंस ने इस कन्या को ही देवकी की आठवीं सन्तान मान कर शिला पर पटक कर मारना चाहा तो उसके हाथों से छूटकर वह आकाश की दिशा में ऊपर जाकर देवीरूप से प्रकट हो गईं। उन्होंने कंस को बताया कि दुनिया का तारणहार और तुम्हारा संहारक जन्म ले चुका है। भगवती मनुष्यरूप में स्थित नहीं हुईं। उनके इस स्वरूप की उपासना सम्पूर्ण सैन्धव-सभ्यता में की जाती थी। इसलिए मातृ-शक्तियों की प्रतिमाएं सैन्धव-क्षेत्र में मिलीं।
      भगवान शिव और रुद्र के अनेकानेक रूपों की पूजा-उपासना सम्पूर्ण भारत में सदा से चलती आ रही है। चाहे कश्मीर में अमरनाथ हो या दक्षिण-तट पर रामेश्वरम, चाहे कैलाश पर्वत हो या काशी या उज्जैन।
5.  आनर्त्त-देश (सैन्धव-सभ्यता) का सर्वनाश  
       यदुवंशियों के विनाश की कथा पुराणों में वर्णित है—कृत्वा भारावतरणं भुवो हत्वाखिलानृपान्। शापवयाजेन विप्रणामुपसंहृतवान्कुलम्।।(वि.पु. 5/37/3)।। अर्थात् सम्पूर्ण पापी राजाओं (कुछ को स्वयं एवं कुछ का महाभारत युद्ध के म्ध्यम से) संहार  कर के उन्होंने पृथ्वी का भारावतरण किया और फिर ब्राह्मणों के शाप के कारण अपने कुल का भी उपसंहार कर दिया। यादवों की विशाल सेना, उसके सेनापति और सरदार आपस में ही उलझ कर एक दूसरे लड़कर मारे गये।
      फिर जिस दिन श्रीकृष्ण का देहावसान (परलोकगमन) हुआ, समुद्र की बाढ़ से आनर्त्त-देश का सम्पूर्ण क्षेत्र आप्लावित हो गया और द्वारका नगरी भी पुनः समुद्र में डूब गई—प्लावयामास तां शून्यां द्वारकं च महोदधिः।
      यह सम्पूर्ण पौराणिक विवरण एवं सैन्धव-सभ्यता के पुरातात्वि प्रमाण एक दूसरे से मेल खाते हैं। द्वारका-नगरी आज भी गुजरात समुद्र-तट पर है। वैज्ञानिकों ने समुद्र में डूबी द्वारका का भी पता लगा लिया है। सिन्धु नदी के क्षेत्र से लेकर गुजरात आदि का बहुत बड़ा क्षेत्र आनर्त्त-देश की सीमा के अन्तर्गत था। इसी क्षेत्र को आधुनिक इतिहासकारों ने सैन्धव-सभ्यता का नाम दिया है।
      अतएव सुनिश्चित रूप से प्रमाणित होता है कि भगवान श्रीकृष्ण द्वारा द्वारका-नगरी को केन्द्र बना कर जिस आनर्त्त-साम्राज्य की स्थापना की गई थी, वह वास्तव यादवी-सभ्यता का क्षेत्र था और इसे ही इतिहासकारों ने सैन्धव-सभ्यता का नाम दिया है।
रमाशंकर जमैयार 

बुधवार, 17 अगस्त 2011

विश्वामित्र और मेनका-एक विश्लेषणात्मक अध्ययन


ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका
भारतीय अध्यात्म नारी को भोग्या नहीं, शक्तिरूप बताता है, चाहे वह प्रेमिका हो या पत्नी।
भारत के ऐतिहासिक गाथाओं में चाहे उसे आधुनिक काल के उपन्यासकार आचार्य चतुरसेन ने लिखा हो या पुराणकारों ने, पत्नी या प्रेमिका के रूप में नारी का चित्रण भोग्या के रूप में नहीं, बल्कि 'शक्ति-स्वरूपा' के रूप में किया गया है। आचार्य चतुरसेन के चित्रलेखा एवं आम्रपाली उपन्यासों में भी यही दीखता है। ये नायिकाएँ अपने समय के महान् योगियों के समकक्ष ही नहीं, कभी-कभी उनसे श्रेष्ठ दिखाई देती हैं। उनके रूप-सौन्दर्य और भोग-वैभव में भोगवादी कालिमा नहीं, आध्यात्मिक चाँदनी बिखरी मिलती है। इसके विपरीत सीजर और क्लियोपेट्रा की यूरोपियन गाथाओं में नारी की शारीरिक मादकता और भोग्या का स्वरूप झलकता है जिसका उपयोग वह अपने लाभ के लिए करती है।
पाश्चात्य संस्कृति शारीरिक आधार पर सेक्स की पहचान शारीरिक भूख के रूप में करती है। इसके ठीक विपरीत, भारतीय संस्कृति इस सिद्धान्त को सिरे से नकारती है। उसके पास आधार है वैदिक विज्ञान का जिसमें शरीर और आत्मा की प्रकृति का वैज्ञानिक विवरण शामिल है। इस विषय पर हम ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की प्रेम-गाथा के माध्यम से विवकण प्रस्तुत करना चाहेंगे।
आधुनिक इतिहासकारों ने पुराणों से चक्रवर्त्ती सम्राट भरत का प्रसंग उठाया है और बताया है कि इन्हीं के नाम पर इस देश का नाम 'भारत' पड़ा। इनके पिता पुरुवंशी राजा दुष्यन्त थे और माता थीं शकुन्तला। इसलिए, शकुन्तला का सम्बन्ध  भारतीय इतिहास से है। पुराणों में बताया गया है कि महाराज दुष्यन्त ने शकुन्तला की रूप-कान्ति पर रीझकर उनसे प्रेमविवाह किया था। वह मेनका नामक अप्सरा की पुत्री थीं, इसलिए स्वाभाविकरूप से परम सुन्दरी थीं। उनकी पहली मुलाकात वनों में स्थित कण्व ऋषि के आश्रम के निकट हुआ था। परिचय पूछने पर शकुन्तला ने उन्हें बताया कि वह विश्वामित्रजी की पुत्री है और उसकी माता मेनका ने उन्हें यहाँ (ऋषि आश्रम) में छोड़ रखा है—विश्वामित्रात्मजैवाहं त्यक्ता मेनकया वने (श्रीमद्भागवद, 9/20/13)।
इसप्रकार, ऋषि विश्वामित्र और मेनकाimages (3).jpg का सम्बन्ध भी भारतीय इतिहास से है।

भारत को लोग विश्वामित्र को एक 'ऋषि' के रूप में जानते हैं। वैदिक विज्ञान में ऋषि शब्द का विशेष अर्थ है। पहली बात तो यह कि उन्हें ही वैदिक-ऋचाओं का 'द्रष्टा' माना जाता है और दूसरी बात यह कि उन्हें 'अमर' बताया जाता है। विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्माजी ने आरम्भ में नौ मानस-पुत्रों को उत्पन्न किया--अथान्यान्मानसान्पुत्रान्सदृशानात्मनोऽसृजतम (वि.पु.,1/7/4)। इनमें वशिष्ठ, भृगु, अत्रि आदि के नाम पौराणिक आख्यानों में बराबर आते हैं। ये ब्रह्मा के पुत्र होने के कारण अमर थे।
परन्तु, विश्वामित्र इनसे भिन्न थे। उनका जन्म मानव-वंश में हुआ था। वे जाह्नु-वंश के सम्राट कुशाम्ब के पौत्र और गाधि के पुत्र थे। बाद में उन्होंने अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त कर वीर क्षत्रिय की भाँति राज्य भी किया। विवाहकर पुत्रादि भी उत्पन्न किये।
फिर भी, विश्वामित्र की गणना पूर्वोक्त अमर ऋषियों की श्रेणी में की जाती है। इन्हें उन सप्तर्षियों में से एक माना गया है जो ध्रुव-तारे की परिक्रमा करने वाले सप्तर्षि संज्ञक तारामंडल के अधिपति हैं—वसिष्ठः काश्यपोऽथात्रिर्जमदग्निस्सगौतमः। विश्वामित्रभरद्वाजौ सप्त सप्तर्षयोऽभवन।।(विष्णु पुराण, 3/1/32)।। तात्पर्य यह है कि वे मानव-जाति के उन विभूतियों में से है जिन्होंने मनुष्य-योनि में जन्म लेकर भी अमरत्व और ऋषित्व प्राप्त किया।
अमरत्व और ऋषित्व प्राप्त करने वाले विश्वामित्र निश्चय ही महान तपस्वी एवं सिद्ध-योगी थे। तपस्या के क्रम में ही उनकी मुलाकात अप्सरा मेनका से हुई। फिर, मेनका की याचना पर उन्होंने उसे सन्तान-सुख प्रदान किया जिसके फलस्वरूप शकुन्तला का जन्म हुआ।
भारतीय संस्कृति में जहाँ अप्सराओं को स्त्री-सौन्दर्य का सबसे सुन्दर रूप माना जाता है, वहीं अन्यान्य संस्कृतियों के ग्रन्थों में भी परियों की कहानी आती है और इन्हें भी स्त्री-सौन्दर्य का सबसे सुन्दर रूप माना गया है। इन्हें मनुष्य-लोक से भिन्न परीलोक का निवासी माना गया है। हातिमताई की कहानियों में ऐसी कुछ परियों की चर्चा है। कुछ लोग इन कहानियों को गल्प-कथा मानते हैं। लेकिन, वैज्ञानिकों को उड़न-तश्तिरयों और एलियन्स के प्रमाण मिल चुके हैं और यह स्वीकार किया जा चुका है कि एलियन्स (परलोकवासी) भी हैं जिनका विज्ञान हमारे विज्ञान से बहुत आगे है।
भारतीय ग्रन्थों में अप्सराओं को देवराज इन्द्र के स्वर्गलोक का निवासी बताया गया है और उन्हें देवराज इन्द्र के अधीन माना गया है। कहा जाता है कि देवराज इन्द्र द्वारा उनका उपयोग कई बार तपस्वियों की तपस्या को भंग करने के लिये भी किया जाता है, क्योंकि उनके रूप-सौन्दर्य का आकर्षण अत्यन्त प्रबल होता है—धरती की नारियों की तुलना में बहुत ही अधिक। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि क्या इन्द्र ने मेनका को भी विश्वामित्र की तपस्या भंग करने को भेजा था?
इस सम्बन्ध में स्पष्टरूप से कहा जा सकता है कि इन्द्र को विश्वामित्र से किसी प्रकार की ईष्या नहीं थी, क्योंकि वे तो स्वयं देवराज इन्द्र के पुत्र थे। इस सम्बन्ध में विष्णु पुराण में बताया गया है कि विश्वामित्रजी के पितामह .कुशाम्ब की इच्छा थी कि उसका इन्द्र के सामान प्रतापी एक पुत्र उत्पन्न हो। इस निमित्त उसने घोर तप किया—तेषां कुशाम्बः शक्रतुल्यो मे पुत्रो भवेदिति तपश्चकार (वि.पु., 4/7/9)। देवराज को भय हुआ कि कुशाम्ब के पुत्ररूप से कहीं कोई दूसरा इन्द्र न उत्पन्न हो जाए, इसलिए स्वयं इन्द्र ही उसके पुत्ररूप से अवतरित हो गये और गाधि के नाम से जाने गये जो विश्वामित्र के पिता थे।
अतः, देवराज इन्द्र प्रकारान्तर से विश्वामित्रजी के पिता थे। वे उनकी तपस्या की सिद्धि चाहते थे। इसलिये उन्होंने  योगसिद्धि में उनकी सहायिका बनाकर उनके पास भेजा।
हर सामान्य व्यक्ति स्त्री के रूप-सौन्दर्य को भोग की वस्तु तो मान सकता है, लेकिन तपस्या में सिद्धि का कारक मानने को तैयार नहीं होगा। परन्तु, योग और अध्यात्म के विज्ञान में स्त्री को सिद्धि का कारक बताया गया है—
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण जीवात्मा के सम्बन्ध में कहते हैं—सर्वयोनिषु कौन्तेय मूत्तर्यः सम्भवन्ति या। तासां ब्रह्म मह्द्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।(14/4)।। वे अर्जुन से कहते हैं-हे अर्जुन (कौन्तेय)! प्रत्येक योनि की जो वाह्याकृति (मूर्त्ति) होती है (सम्भवन्ति वा)। वह महद्-ब्रह्म (ब्रह्म महद्) का बलात्मक घेरा है (जिसे पराशक्ति या माया के नाम से भी जाना जाता है।  उस वाह्याकृति (वाह्य-परिच्छेद) की बीज-शक्तिरूप से (बीजप्रदः) मैं (अहं) स्वयं स्थित हूँ, इसलिए सबका पिता हूँ।
विदित हो कि बीजशक्ति का अर्थ है केन्द्र-शक्ति। अर्थात् केन्द्र पर स्थित विन्दुरूप शक्ति। श्रीकृष्ण बताते हैं कि जीवात्मा के केन्द्र पर परब्रह्म विन्दुरूप नित्य शक्ति है। इसे प्रजापति भी कहते हैं। जीवात्मा के ही सन्दर्भ में बृहदारण्यकोपनिषद (5/9/1) में बताया गया है कि यह विन्दुरूप 'ब्रह्म' अकेला नहीं रहना चाहता ( स नैव रेमे तस्मादेकाकी)। एक से दो होने की इच्छा से (स द्वितीयमैच्छत्) वह चने की दाल की तरह आधा-आधा होकर दो भागों में विभाजित हो जाता है। इनमें से एक स्त्रीरूप है और दूसरा पुरुषरूप (स्त्रीपुमांसौ संपरिष्वक्तौ)। यह स्त्रीरूपा-भाग ही योग-शास्त्रों में कुण्डलिनी-शक्ति के नाम से प्रसिद्ध है और पुरुषरूप-भाग को सदाशिव नाम से जाना जाता है। ये दोनों एक ही शक्ति के दो स्वरूप हैं, परस्पर पति-पत्नी रूप हैं, इसलिए इन दोनों में घोर आकर्षण रहता है। इन दोनों को परस्पर मिलने से बाधित करने के लिए ही मानव-योनि में षटचक्रों की व्यवस्था है। षटचक्रों में सबसे नीचे मूलाधार चक्र है जो कुण्डलिनी-शक्ति का स्थान है और सबसे ऊपर सहस्रार चक्र है जो सदाशिव का स्थान है।
यह स्थिति स्त्री और पुरुष, दोनों में ही समानरूप से रहती है। फिर भी, दोनों में स्पष्ट अन्तर यह है कि स्त्री कुण्डलिनी-प्रधाना होती है और पुरुष सदाशिव-प्रधान होता है। हम यह समझते हैं कि पुरुष के शरीर को देखकर स्त्री और स्त्री के शरीर को देखकर पुरुष आकर्षित होता है, लेकिन यह वाह्य-भ्रम भर है। यहाँ तो पुरुष का सदाशिव स्त्री की कुण्डलिनी-शक्ति के प्रति तथा स्त्री की कुण्डलिनी-शक्ति पुरुष के सदाशिव के प्रति आसक्ति व्यक्त करता है।
योग-साधना में कुण्डलिनी-शक्ति को जाग्रत किया जाता है। इससे वह एक-एक कर ऊपर के चक्रों का भेदन करते (पार करते) हुए सहस्रार-चक्र स्थित सदाशिव से जा मिलती है और उसके साथ संयुक्त हो जाती है। फिर वे दोनों हृद्य-स्थित अनहद-चक्र पर आकर स्थित हो जाते हैं। यही योग की पूर्णता है। इसी स्थिति को मोक्ष कहा जाता है। यहाँ ब्रह्म अपने पूर्ण-स्वरूप में स्थित रहता है, इसलिए इस स्थिति का योग-विद्या द्वारा व्यावहारिक ज्ञान ही ब्रह्म-ज्ञान है।
विश्वामित्र और अप्सरा मेनका
विश्वामित्रजी ब्रह्म-ज्ञान अर्थात् मोक्ष-प्राप्ति की ही साधना कर रहे थे। इसमें पहले ध्यान को एकाग्र कर मन की चंचलता को दूर किया जाता है, क्योंकि चंचलता-विहीन स्थिति मे ही मन योग का साधन बन पाता है। वह कुण्डलिनी-शक्ति-के गिर्द भ्रमर की तरह उसके चारों ओर घूमने लगता है जिससे कुण्डलिनी-शक्ति जाग्रत होने लगती है। विश्वामित्र जी को इस स्थिति तक पहुँचने में ही बाधा हो रही थी। वे क्षत्रिय-वंश के थे, इसलिए उनमें क्रोध अधिक था।
ऐसे समय में उन्हें एक ऐसी वाह्य-शक्ति की आवश्यकता थी जो एक झटके से उनके ध्यान को एकग्र कर उनके मन की चंचलता भी दूर कर दे और साथ ही साथ उनकी कुण्डलिनी-शक्ति को भी जाग्रत कर दे। ये दोनों ही शक्तियाँ नारी-सौन्दर्य में है। यह व्यावहारिक तथ्य है कि कोई सुन्दरी जब समक्ष आ जाती है तो आँखें उसी पर जम जाती हैं। केवल आँखें ही नहीं, पूरा ध्यान ही उस पर एकाग्र हो जाता है। ध्यान की एकाग्रता का आलम यह होता है कि कभी-कभी आस-पास के माहौल का भान भी नहीं रहता।
मेनका स्वर्ग की अप्सरा थी, किसी भी मानवी की तुलना में उसके रूप-सौन्दर्य का आकर्षण प्रबलततर था। इसके कारण विश्वामित्र को उसके रूप-सौन्दर्य के ध्यान से ही एकाग्रता की प्राप्ति हो गई—मन एकाग्र हो गया। नारी होने के कारण वह कुण्डलिनी-प्रधाना थी और अप्सरा होने के कारण इसरूप में भी प्रबलतम थी। फलस्वरूप, विश्वामित्रजी शीघ्र ही न केवल ध्यानस्थ हो पाये, बल्कि अपनी कुण्डलिनी-शक्ति को भी जाग्रत कर पाये। फलस्वरूप उन्हें शीघ्र ही कुण्डलिनी-शक्ति और सदाशिव के अनहद-चक्र पर स्थित होने का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त हो गया और उनके योग की सिद्धि हो गई।
इनकी योग-सिद्धि में सहायिका बनी मेनका ने विश्वामित्रजी का आध्यात्मिक उपकार किया था। इसके एवज में वह उनसे कुछ भी मांग पाने के योग्य थी। उसने विश्वामित्र को निरन्तर अपनी स्मृति में बनाये रखने के लिए उनसे सन्तान की मांग की। इससे मेनका ने शकुन्तला को पुत्रीरूप से जन्म दिया।
रमाशंकर जमैयार

शनिवार, 30 जुलाई 2011

सौन्दर्य और सन्यास


                                        सौन्दर्य और सन्यास  
                 हिन्दी साहित्य में आचार्य चतुरसेन की ख्याति ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखे कई उपन्यासों से है जिनमें तत्कालिन भारतीय समाज की परिस्थितियों का भिन्न-भिन्न पहलुओं का विवरण मिलता है। इनके उपन्यास पर चित्रलेखा नामसे फिल्म भी बन चुकी है। इस फिल्म की नायिका  चित्रलेखा का अभिनय मीनाकुमारी ने किया है और सन्यासी कुमारगिरि का अभिनय अशोक कुमार ने। यह कथा भोग (काम) और योग (सन्यास) के परस्पर विपरीत पार्श्वों में झूलती भी है और दोनों में सामंजस्य भी स्थापित करती है।
वह अपने समय की विख्यात राजनर्तकी थी और दरबार की सम्मानित सदस्या। आज जैसे मंत्री-परिषद हुआ करता है, वैसे ही ये दरबार के सदस्य हुआ करते थे। उस समय नारी-जाति से कोई भेदभाव नहीं किया गया जो चित्रलेखा की कथा से प्रमामित होता है।
ये दरबारी अपने-अपने क्षेत्र के उत्कट् विद्वान हुआ करते थे। आम्रपाली नृत्यकला की विदुषी,  अगाध रूप-सौन्दर्य की स्वामिनी थी। साथ ही भारतीय सेक्सोलॉजी की विशारद थी, इसका कोई घृणित अर्थ नहीं निकाला जाए, क्योंकि भारतीय काम-विज्ञान आरम्भ से ही आध्यात्मिक विषय रहा है। इस विषय में प्रवीणता ने उसकी आध्यात्मिक-शक्ति को श्री-सम्पन्न किया था जिसका प्रमाण सन्यासी कुमारगिरि के आगमन से मिलने लगता है।
  सन्यासी कुमारगिरि अपने समय के प्रसिद्ध हठयोगी थे। वे स्त्रियों के स्पर्श से भी बचे रहने का दावा किया करते थे। राजा ने उस तपस्वी को ब्रह्मज्ञान का अधिकारी समझ दरबार में सबसे ऊँचा सम्मान दिया। सन्यासी ने अपने को इस योग्य सिद्ध करने के लिए एक दिन सबके समक्ष भरे दरबार  भगवान को प्रकट दिखाने का दावा किया। राजा और दरबारी विस्मयमुग्ध रह गये, क्योंकि उन्हें लगा कि  सच में उन सबके सामने पीताम्बरधारी श्गरीविष्वाण खड़े हैं। लेकिन, यह तपस्या-बल से अर्जित हिप्टोनिज्म की माया थी, वास्तविकता नहीं। कुमारगिरि की माया आम्रपाली की आँखों को धोखा नहीं दे सकीं। स्सवयं को योगबल के सर्वोच्च अधिकारी मानने वाले कुमारगिरि उस नारी के समक्ष पराजित थे जिसे भोग की स्वामिनी कहकर वे अपमानित करने की चेष्टा कर चुके थे। यहाँ काम-विज्ञान की आध्यात्मिक-शक्ति योग-विज्ञान की शक्ति से प्रतिस्पर्धा लेते हुए स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध कर रही थी। 
पाश्चात्यवादी विद्वान काम को इन्द्रिय-आधारित संवेग और उत्तेजना मानते हैं, जबकि भारतीय ज्ञान-विज्ञान इसे मन-आधारित शक्ति और आनन्द का स्वरूप मानता है--कामस्तदग्रे समवर्त्तताधि मनसो रेतः प्रथमं तदासीत् (नासदीय सूक्त)। इसमें बताया है कि मन की जो बीज-शक्शति है, वह मन के ठीक केन्द्र-विन्दु पर स्थित रहती है और उसी का नाम काम है।
इसलिए, मन को एकाग्र करने से ज्यों-ज्यों मन जाग्रत होता है, उसकी केन्द्र-शक्ति जाग्रत होने लगती है और मन सम्पूर्ण शरीर को जिस आनन्द की अनुभूति कराने लगता है, वह कामानन्द है।  योग-सिद्धि में भी योगी अपने ध्मयान को एकाग्र करता है जिससे उसके मन की चंचलता दूर होती है। विदित हो कि शाँत अर्थात् शुद्ध चित्त के आनन्द को सच्चिदानन्द कहते हैं। यह तो उसी कामानन्द का नाम है। कोई योगी यह कहे कि काम अध्यात्म नहीं भोग है, तो या तो वह अपनी योग-विद्या में अपूर्ण है, या झूठी आत्म-प्रशंषा करता है।   
काम की इन्द्रियजनित अनुभूति और काम की इन्द्रियातीत अनुभूति का अन्तर नहीं समझने वाले कुमारगिरि-जैसे हठयोगी भी होते हैं जो अपने को श्रेष्ठ बताने के लिए स्त्री-शक्ति को काम और भोग का कारक मानकर घृणा फैलाते हैं। स्त्री को कामिनी कहा गया है, इसलिए नहीं कि वह पुरुष को काम-वासना की ओर धकेलती है, बल्कि इसलिए कि उसमें मन को एकाग्र कर उसकी केन्द्र-शक्तिरूप (काम) को जगाने वाली शक्ति है और इस रूप में वह पुरुष के योगबल को मुक्कमल बनाती है।
   सन्यासी को चित्रलेखा चुनौती देते हुए कहती है कि 'जब आप इस संसार में आकर संसार को नहीं पा सकते, फिर ईश्वर को कैसे पायेंगे?' इस संदेश का आधार भी अध्यात्म ही है। विदित हो कि हमारा मन ईश्वर की अनुभूति को भी ग्रहण करने की क्षमता रखता है। उसकी अनुभूति को ब्रह्मानन्द कहा जाता है। इसे शास्त्रों में सच्चिदानन्दघनस्वरूप कहा गया है जिसका अर्थ है सच्चिदानन्द (शुद्धमन के आनन्द) का घनीभूतस्वरूप ((compacted mass)। मन शुद्ध तब रहता है जब उस पर केवल उसकी बीज-शक्ति जागृत रहती है। और यह है काम। इसलिए, कामानन्द का घनभूत स्वरूप ही ब्रह्मानन्द है।  
इसी सन्दर्भ से जुड़े एक अहम प्रश्न का जवाब उपन्यासकार चित्रलेखा के माध्यम से देता है।  काम का इन्द्रिय-सुख एक वासना है जो शरीराकर्षण पर आधारित होता है और इसमें नैतिकता नहीं होती। उसका प्रेमी बीजगुप्त उससे पूछता है--क्या प्रेम पाप है? वह उत्तर देती है कि आत्मा जिसे पाप समझता है, वह पाप है, जिसे पाप नहीं समझता वह पुण्य है। भावार्थ यह है कि शरीर-भोग की इच्छा से किये गये विलास में केवल इन्द्रिय-सुख है, इसे विवेक स्वीकार नहीं करता, इसलिए यह पाप है। लेकिन, प्रेमाकर्षण के बीज मन में होते हैं, इसलिए प्रेमाकर्षण में मिलन विवेकोचित होने के कारण पुण्य है। 
सत्य की पहचान करने की एकमात्र क्षमता विवेकजनित बुद्धि में होती है, क्योंकि विवेक आत्मा की वह शक्ति है जो बुद्धि को सत्य की पहचान से युक्त करती है। इसलिए, विवेकजनित बुद्धि तर्क-वितर्क से परे और निश्चयात्मक होती है--—व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।(गीता,2/41)।। अर्थात् मनुष्य की जो वास्तविक बुद्धि है, वह निश्चयात्मक (व्यवसायात्मिका) होती है--एक और एक होती है (बुद्धिरेकेह), क्योंकि वह सभी विकल्पों से परे रहती है। यहाँ जिस निश्चयात्मक बुद्धि के बारे में श्रीकृष्ण कह रहे हैं, वह 'विवेक' ही है। 
आगे की कहानी में कुमारगिरि वैशाली छोड़कर अपने आश्रम लौट आता है। आम्रपाली कुमारगिरि के सन्यासी जीवन से प्रेरणा लेती है तो उसे मान-सम्मान और भोग-ऐश्वर्य का जीवन व्यर्थ लगने लगता है। वह कुमारगिरि से सन्यास की दीक्षा लेने अकेले और पैदल ही उसके आश्रम की ओर चल पड़ती है। वहाँ पहुँचते-पहुँचते थककर क्लान्त हो जाती है और आश्रम के सामने गिर पड़ती है। कुमारगिरि को विवशता में आम्रपाली-जैसी सुन्दरी को अपनी बाँहों में सम्हालना पड़ता है।
कुमारगिरि का मन भी क्षणमात्र के लिये उस अप्रतिम सौन्दर्य के स्पर्श से रोमांचित हो उठता है, लेकिन वह स्वयं को नियन्त्रित कर लेता है। इस स्पर्श से जिस रोमांच की अनुभूति उसे हुई, वह अप्रत्याशित नहीं, बल्कि स्वाभाविक थी, क्योंकि यही प्रकृति का नियम है। इसके बावजूद भी उसके विवेक ने इसे निष्पाप अनुभूति के रूप में स्वीकार नहीं किया। कारण स्पष्ट है कि उसने अपने योगहठ के कारण काम को घृणित और त्याज्य समझ रखा था और नारी-शरीर को काम का वास मानता था। उससे शारीरिक पाप भले न हुआ हो, वह मानसिक पाप का शिकार तो हो ही गया। परिणामस्वरूप उसने गंगानदी में शरीर त्याग कर लेने की ठान ली और भगवती गंगा का आह्वान करते हुए नदी की ओर बढ़ने लगा।
आम्रपाली को जब चेतना आई तो वह समझ गई कि कुमारगिरि उसके स्पर्श के कारण आत्मग्लानि से भर चुका है। वह जानती थी कि उसने कोई पाप नहीं किया है, फिर भी कुमारगिरि की स्थिति के लिए उसने स्वयं को जिम्मेवार माना। वह भी शरीर त्याग की नीयत से गंगा नदी की ओर बढ़ी। गंगा नदी उफनती-दौड़ती उनकी ओर बढ़ रही थी। कुमारगिरि आगे-आगे थे, लेकिन गंगा उसे अपनी जलधारा में लेती, एक सर्प ने उसे डँस लिया। कुमारगिरि और आम्रपाली दोनों को ही गंगा की धारा बहा कर ले गई, लेकिन इसके पूर्व ही कुमारगिरि की मौत सर्प-दंश से हो चुकी थी। यह भोग की स्वामिनी के आगे योग के स्वामी की पराजय थी। इसप्रकार, यदि काम और योग को एक ही तराजू पर रखा जाए, तो भी काम को कमतर सिद्ध करना असम्भव-सा है।
यह प्रसंग विवेक का महत्व समझ में आता है। विवेक की आवश्यकता न केवल भोग के लिए है, बल्कि योग के लिए भी। विवेकहीन योग अहंकार का कारण हो जाता है। यह अहंकार ही घृणा को जन्म देता है। नारी को शरीर को भोग का वास मान लेना एक योगी का अहंकार है, क्योंकि नारी एक शक्ति है, भोग की वस्तु नहीं। यह शक्ति सत्यात्मक है, क्योंकि उसके रूप-सौन्दर्य में आनन्ददायक आकर्षण है। सत्यम् शिवम् सुन्दरं का वैदिक सिद्धान्त बताता है कि जहाँ आनन्द है, वहीं सुन्दरता का आभास है। आनन्द की स्थिति वहीं है जहाँ कल्याण (शिवम्) है। कल्याण वहीं है, जहाँ सत्य है। इसलिए, नारी-शक्ति में सत्य अन्तर्निहित है, क्ल्याण अन्तर्निहित है, इसलिए वह सुन्दर प्रतीत होती है। इससे घृणा करना योगबल और ज्ञान का अपमान है। 
रमाशंकर जमैयार,
वीरपुर, सुपौल, बिहार।       

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

जात-पाँत पूछे नहीं कोय



संत रविदास अपने समय के श्रेष्ठतम संतों में एक थे। वे माने हुए संत थे, परन्तु जाति से चमार थे। फिर भी, समाज में उनकी एवं उनके उपदेशों की विशेष महत्ता थी। वे ज्ञानी थे ही, भाषा में भी निपुण थे। उन्होंने दोहों-पदों के रूप में अपने उपदेशों को व्यक्त किया है। उनके अनेक पदों को गुरुग्रन्थ साहब में भी शामिल किया गया है। उन्होंने सामाजिक भेदभाव को कभी भी धर्मसंगत नहीं माना और न इसके लिए कभी धार्मिक ग्रन्थों को दोषी बताया। वे कहते हैं---‘जात पाँत पूछै नहीं कोय, हरि को भजै सो हरि का होय।’
कई लोग यह अनुमान करते हैं कि जाति के आधार पर रविदासजी को भी अपमान के घूँट सहने पड़े थे, क्योंकि उनके काल में जात-पाँत का भेद बहुत ही बढ़ा हुआ था। इसलिए उन्हें ऐसा उपदेश देना पड़ा। परन्यतु, यह सही नहीं है। यह तो ऋणात्मक सोच और विपरीत बुद्धि की उपज है जिसके आधार पर    इतिहास की वास्तविकता को विकृत किया जाता हैं।
      मुस्लिम-काल के भारतीय संतों का अपना गौरवशाली इतिहास है। संतों की इस परम्परा में गुरु नानक, रविदास, कबीरदास और मीराबाई का नाम अग्रगण्य है। गुरु नानक, रविदास और कबीर दास के गुरु थे रामानन्दजी जो ब्राह्मणवंशी थे। उस समय यदि जातिभेद प्रबल होता तो एक ब्राह्मण गुरु रविदास जैसे चमार और कबीरदास जैसे जुलाहे को अपना शिष्य क्यों बनाता गुरु नानक क्षत्रियवशी थे। उन्होंने स्वयं को भगवान राम का वंशज बताया है, फिर भी रविदास के पदों को गुरुग्रन्थ साहब में शामिल किया गया है। इतना ही नहीं, राजवंश की मीराबाई को गुरु स्वयं संत रविदास थे। इतने महान संत होते हुए भी रविदासजी ने चर्मकारी के वंशानुगत पेशे का त्याग नहीं किया, क्योंकि यह पेशा कभी भी उनकी परेशानी का सबब नहीं बना। उनका निम्नांकित दोहा उनके पेशे से सम्बन्धित है, फिर भी पवित्रता का द्योतक हैमन चंगा तो कठौती में गंगा। कोई स्त्री गंगास्नान को गई थी। वहाँ उसका एक कंगन हाथ से निकलकर गंगाजी में चला गया। वह रोती हुई घर लौट रही थी। रास्ते में रविदास जी बैठे अपने पेशे में लगे थे। उनके काठ की कठौती में चमड़ा धोने के लिये पानी रखा हुआ था। वह स्त्री इस महान संत के सम्मुख आकर अपनी व्यथा सुनाने लगी। रविदासजी ने कठौती में गंगा माता का आह्वान किया और उस कठौती से उस महिला का कंगन निकल आया।  घटना ने मन चंगा तो कठौती में गंगा की उक्ति को प्रमाणित किया। यह घटना यह भी प्रमाणित करता है कि रविदासजी एक सिद्ध संत थे। उन्होंने अपने ही चरित्र से प्रमाणित किया कि जो ईश्वर को भजता है, वही ईश्वर का होता है चाहे वह शूद्रादि जाति का ही क्यों न हो!    
      भारतीय संस्कृति ईश्वरवाद पर आधारित है। जो ईश्वर और उसकी सत्ता को नहीं मानता, उसे नास्तिक कहा जाता है। भारतीय संस्कृति ने सदैव ही नास्तिकता का विरोध किया है। कुछ पंडित-विद्वान ऐसे भी हैं जो स्वयं को धर्मशास्त्री बताते हैं, लेकिन नास्तिकता का प्रचार करते हैं। मुझे स्मरण है कि जब बूटा सिंह केन्द्र सरकार में गृहमंत्री थे, तब एकबार वे जगन्नाथपुरी आये थे, भगवान का दर्शन करने। उनके जाने के बाद मंदिर-प्रांगण को गंगाजल से धोकर शुद्ध किया गया। ऐसी शुद्धि को धर्म का आधार दिया गया। क्या वास्तव में धर्म विभेदात्मक अस्पृश्यता की प्रेरणा देता हैं, लोगों में घृणा के भाव फैलाता है धर्म शब्द की उत्पत्ति धृति से हुई है जिसका अर्थ है धारण करने योग्य। इसलिए, धर्म मनुष्य को जीवन की कला सिखाता है, घृणा और अपमान के पाठ नहीं पढ़ाता।
छुआछूत के सिद्धान्त में निहित नास्तिकता
. ईश्वर सर्वशक्तिमान है
      धर्म का पहला पाठ है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है। धनात्मक और ऋणात्मक भेद से शक्ति के दो प्रकार होते हैंकल्याणकारी (दिव्य) और अकल्याणकारी (आसुरी यानि शैतानी)। ईश्वर की शक्ति इन दोनों ही प्रकार की शक्तियों से ऊपर होती है, इसलिए वह सर्वशक्तिमान कहा जाता है। ईश्वर यदि सर्वशक्तिमान है तो किसी शूद्र के स्पर्श से वह स्वयं अपवित्र कैसे हो सकता है यदि वह किसी शूद्र के स्पर्श से इस प्रकार अपवित्र हो जाता है कि गंगाजल से धोये बिना उसकी शुद्धि सम्भव नहीं, तो निश्चय ही ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है। लेकिन, जो लोग उसे सर्वशक्तिमान नहीं मानते, वे घोर नास्तिक हैं।
. ईश्वर अघहारी है
      महात्मा गाँधी का प्रिय भजन हैरघुपति राघव राजा राम। पतित पावन सीता राम। इसमें ईश्वर को पतित पावन कहा गया है। बिन्दू कवि कहते हैंअघहारी हरि दुखिया जन के दुख-क्लेश हरेंगे कभी न कभी। यहाँ ईश्वर को अघ (पाप) का नाश करने वाला बताया गया है। बिन्दू कवि के कथन का अभिप्राय है कि कोई व्यक्ति यदि पापयुक्त हो गया है, फिर भी वह भगवान की शरण में चला जाता है तो भगवान उसका पाप हर लेते हैं और उसे निष्पाप बना देते हैंपतित से पावन बना देते हैं। मनुष्य की कोई बीमारी होती है तो वह डाक्टर के पास जाता है। डाक्टर उपचार के माध्यम से उसकी बीमारी दूर कर देता है। प्रश्न यह है कि जिस मनुष्य को पाप की बिमारी लग गई है-जिसका पतन हो चुका है, उसका ईलाज कौन करेगा इस प्रश्न का उत्तर यह है कि पाप की बीमारी को दूर करने वाला यदि कोई डॉक्टर है, तो वह स्वयं ईश्वर है। ईश्वर की तुलना हम पारस-मणि से कर सकते हैं जिसके स्पर्श-मात्र से लोहा भी सोना हो जाता है। अब यदि पारस मणि लोहे को स्पर्श से स्वयं शक्तिहीन हो जाए तो वह कैसा पारस-मणिॽ
३. शुद्धि-मंत्र
      उपरोक्त जवाब का आधार धार्मिक ग्रन्थ स्वयं हैं। कर्म-काण्ड में ‘शुद्ध मंत्र’ का व्यापक स्थान है। हाथ में जल लेकर शुद्धि मंत्र का उच्चारण किया जाता है और वह जल देह पर छिड़क कर शुद्ध हो जाने का अहसास किया जाता है। पूजनादि कार्यों में हम सभी इस मंत्र का पाठ या अनुश्रवण करते हैं, परन्तु मंत्र के अर्थ और कथ्य पर विचार नहीं करते। मंत्र इस प्रकार हैॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं, वाह्याभ्यान्तरः शुचिः।। लोग दो प्रकार के होते हैंपवित्र और अपवित्र। अवस्थाएँ भी दो प्रकार की होती हैशौचावस्था और अशौचावस्था। शौचावस्था में व्यक्ति अपवित्र माना जाता है और अशौचावस्था वह है जब जलादि छिड़ककर वह पवित्र हो जाता है। इस व्याख्या के अनुरूप मन्त्र का अर्थ इस प्रकार हैकोई व्यक्ति चाहे अपवित्र हो या पवित्र (अपवित्रः पवित्रो वा), अशौचावस्था में हो या शौचावस्था में (सर्वावस्था गतोऽपि वा), जैस ही वह भगवान विष्णु (ईश्वर) का स्मरण करता है (यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं), वह बाहर और भीतर से (तन और मन दोनों से) पवित्र हो जाता है (वाह्याभ्यान्तरः शुचिः)।
      इस शुद्धि मन्त्र से स्पष्ट हो जाता है कि ईश्वर के स्मरण मात्र से ही मनुष्य पतित से पावन हो जाता है। कोई व्यक्ति यदि मन्दिर जा रहा है तो निश्चय ही उसे ईश्वर का स्मरण हो आया है। इसकारण वह पतित से पवित्र हो चुका है। फिर भी, हम उसकी जाति पूछते हैं और यदि वह जाति का शूद्र हुआ तो उसे मन्दिर में प्रवेश करने से रोक देते हैं। किसी व्यक्ति को ईश्वर की उपासने करने से रोकने के लिये जब हम उसका मन्दिर में प्रवेश ही रोकते हैं, तो अनुमान कीजिये कि हम कितने बड़े असुर हैं जो भक्त के अधिकार का भी शमन करते हैं और ईश्वर के अधिकार का भी। यदि पतित को पावन बनाने की शक्ति ईश्वर में है तो पतित को पावन बनाने का भी अधिकार ईश्वर को ही है। किसी भक्त को रोकने का अर्थ है कि हम ईश्वर का अपमान कर रहे हैं, उसके अधिकार में बाधा पहुँचा रहे हैं। इसी प्रकार, कोई व्यक्ति ‘पतित’ है तो उसके इस रोग का ईलाज ईश्वर के पास ही है, इसलिए उसे ईश्वर के पास जाने का अधिकार है। किसी रोगी को उसके डाक्टर के पास जाने नहीं दिया जाय तो यह कितना अमानवीय कार्य होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है।
५.वर्ण-व्यवस्था
      यह सही है कि पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी ने अपने मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्र को उत्पन्न किया--ब्रह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम। पादोरुवक्षःस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।।(वि.पु. //)।। इस तर्क के आधार पर यह धारणा बना लेना कि ब्रह्माजी ने मनुष्य को इन चार वर्गों में विभाजित कर उत्पन्न किया है, अज्ञानात्मक तर्क है, क्योंकि उन से उत्पन्न ये चारों मनुष्य नहीं, वर्ण हैं--सर्वाश्चातुवर्ण्यमिदं ततः (//)।
      वर्ण और मनुष्य में भिन्नता है। वर्ण शब्द का अर्थ है रंग, इसलिए यह गुणबोधक है। अर्थात् यह समझा जाना चाहिए कि वर्णों के रूप में मनुष्य के चार गुणों (प्रवित्तियों) की उत्पत्ति हुई। मनुष्य की ज्ञानात्मक प्रवृत्ति को ब्राह्मण-वर्ण, रक्षात्मक प्रवृत्ति को क्षत्रिय-वर्ण, आर्थिक प्रवृत्ति को वैश्य-वर्ण और सेवाभाव की प्रवृत्ति को शूद्र-वर्ण की संज्ञा दी गई है।
       पुराणों का निश्चित कथन है कि मनुष्य की उत्पत्ति मनु से हुई। पुराणकार बताता है कि ब्रहामाजी ने मनुष्य के आदिपूर्वज के रूप में जिस मानव-बीज रूप प्राणी को उत्पन्न किया वह स्वायम्भुव मनु नाम से प्रसिद्ध है--तो ब्रह्माऽऽत्मसम्भूतं पूर्वं स्वायम्भुवं प्रभुः। आत्मानमेव कृतवान्प्रजापाल्ये मनुं द्विज।।(वि.पु. //१६)।। विदित हो कि मनु की संतति-परम्परा को ही मनुष्य (मनुज) कहा जाता है।
      अतः, वंशानुगत आधार पर मनुष्य को चार वर्गों में विभाजित करने की धारणा पौराणिक सिद्धान्तों के विपरीत है। यह विभेद तो उन लोगों का किया-कराया है जिन्होंने भारत में अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए फूट डालो और राज करो की नीति अपनायी।
रमाशंकर जमैयार