मंगलवार, 23 अगस्त 2011

सैन्धव-सभ्यता के संस्थापक श्रीकृष्ण थे


       आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार भारतीय इतिहास का प्रारम्भ आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले सैन्धव-घाटी सभ्यता की स्थापना से हुआ था। लेकिन, पौराणिक-इतिहास के अनुसार भारतीय इतिहास इतना प्राचीन है कि इसे सनातन भी कहा जा सकता है। आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले तो कलियुग का आरम्भ हुआ था-- यदैव भगवान्विष्णोरंशो यातो दिवं द्विज। वसुदेवकुलोद्भूतस्तदैवात्रागतः कलिः।।(विष्णु-पुराण, 4/24/108)।। कलियुग से पूर्व द्वापर युग था। श्रीकृष्ण और कौरव-पाण्डव आदि द्वापर-कलि के सन्धिकाल के लोग थे। द्वापर से पूर्व त्रेता-काल था और उससे पूर्व सत्युग था। चार युगों की चौकड़ी को चतुर्युग कहा जाता है-कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिश्चैव चतुर्युगम (विष्णु पुराण, 1/3/15)। ऐसे इकहत्तर चतुर्युगों का एक मनव्तर होता है—चतुर्युगाणां संख्याता साधिका ह्येकसप्ततिः (वि.पु.,1/3/18)। वर्तमान मनवन्तर का नाम वैवस्वत मन्वन्तर है। इस मन्वतर के सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं। अट्ठाईसवाँ चतुर्युग चल रहा है। इस चतुर्युग के तीन युग भी बीत चुके हैं और यह कलियुग चल रहा है। अतः यह कह देना कि भारतीय इतिहास का प्रारम्भ सैन्धव घाटी सभ्यता से हुआ, षड़यन्त्रपूर्वक रचित विकृति है।
      सैन्धव-घाटी सभ्यता की अपनी वास्तविकता है। इसकी स्थापना भगवान श्रीकृष्ण के काल में हुई थी, इसलिए पाँच हजार वर्ष से अधिक पुरानी सभ्यता है। 1922 ईस्वी में हड़प्पा-आदि स्थलों का पुरातात्विक उत्खनन् किया गया था जिससे अनेक पुरातात्विक प्रमाण मिले।
       विदित हो कि यह विदेशी दासता का काल था। 1857 ईस्वी में महारानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, वीर कुँअर सिंह, मंगल पाँडे सरीखे राजघराने से लेकर अंग्रेजी सेना के सिपाहियों तक ने मिलकर राष्ट्रीय एकता का परचम लहराते हुए प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का युद्ध लड़ा था। भविष्य में ऐसी राष्ट्रीय एकता कभी न बन पाये, इस दृष्टि से अंग्रेजी-सत्ता ने भारतीय संस्कृति और इतिहास को विकृत करने का कार्य अंग्रेजी-सत्ता सम्पोषित इतिहासकारों को दिया।
      इन इतिहासकारों ने उत्खनन् से प्राप्त पुरातात्विक प्रमाणों की वास्तविक व्याख्या इस प्रकार है—
1.  सोलह की संख्या का सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से
      उत्खनन् से प्राप्त प्रमाणों से ज्ञात हुआ कि इस सभ्यता के लोगों ने 16 की संख्या को इकाई निर्धारण का आधार बना रखा था। 16 आनों का एक रूपया, 16 छटाँक का एक सेर आदि। सोलह की संख्या का यह आधार पिछले पाँच हजार साल से आजादी के बाद भी तबतक चलता रहा जब तक कि भारत की सरकार ने दशमलव-पद्धति नहीं लागू की।
       प्रश्न यह है कि लोगों ने 'सोलह' की संख्या को ऐसा महत्व क्यों दिया? भारतीय इतिहास की वास्तविकता को विकृत करने के लिये ये इतिहासकार इस विन्दु को गोल कर गये हैं। हम इस प्रश्न को पुनः खड़ा करते हैं।
      सोलह की संख्या का सम्बन्ध सीधे-सीधे भगवान श्रीकृष्ण से है। उनका जन्म चन्द्रवंश में हुआ था। कालयवन को अपना परिचय देते हुए श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि वे चन्द्रवंश के अन्तर्गत यदुकुल में वसुदेवजी के पुत्ररूप से उत्पन्न हुए हैं—वसुदेवस्य तनयो यदोर्वंशसमुद्भवः। विदित हो कि महाराज यदु चन्द्रवंशी थे।
      वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु आदि उत्पन्न सन्तान-परम्परा को सूर्यवंश कहा जाता है, जबकि वैवस्वत मनु की पुत्री इला से उत्पन्न सन्तति-परम्परा को चन्द्रवंश कहा जाता है। इला का विवाह चन्द्रमा के पुत्र बुध से हुआ था जिससे पुरुरवा का जन्म हुआ। इसलिए यह राजवंश चन्द्रवंशी कहलाया।
      भगवान श्रीकृष्ण चन्द्रवंशी थे। उन्हें पूर्ण-ब्रह्म का अवतार माना जाता है। चन्द्रमा की सोलह कलाएँ होती हैं, इसलिए कहा जाता है कि श्रीकृष्ण सोलहों कलाओं से पूर्ण थे। इस आधार पर सोलह की संख्या को महत्ता मिली। इससे प्रमाणित होता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता का निकटतम सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से था।
2.  श्री कृष्ण आनर्त्त-देश के शासक थे
      जिस क्षेत्र को सैन्धव-सभ्यता का क्षेत्र कहा जाता है, उसे पुराणों में आनर्त्त-देश कहा गया है। बलरामजी का विवाह जिस रेवती नामक जिस कन्या से हुआ था, उस कन्या के पिता रेवतजी ही उस देश के नरेश थे। रेवती से विवाह के कारण इस राज्य का उत्तराधिकार कृष्ण-बलराम को मिल गया।
      पूर्व में देश की राजधानी का नाम कुशस्थनी था। राजधानी का यह क्षेत्र समुद्र-तल में समा गया था, इसलिए श्रीकृष्ण ने राजधानी का वह क्षेत्र समुद्र से माँगकर वहाँ द्वारका नामक नगरी बसायी—कुशस्थली या तव भूप रम्या/पुरी पराद्भूदमरावतीव। सा द्वारका सम्प्रति तत्र चास्ते/स केशवांशो बलदेवनाम।।(विष्णु पुराण, 4/1/91)।।
3.  श्रीकृष्ण ने नागरी-सभ्यता की स्थापना की
      पुराणों में बताया गया है कि कालयवन के संहार के पूर्व ही भगवान ने द्वारका नगरी बसा ली थी और उग्रसेन समेत सभी यदुवंशियों को आनर्त्त-देश में स्थापित कर दिया था। उन्होंने अपनी राजधानी के लिए समुद्र से जो भूमि मांगी, वह समुद्र-गर्भ में समायी कुशस्थली ही थी। यहाँ उन्होंने नागरी-सभ्यता के अनुरूप न केवल अपनी राजधानी बनायी, बल्कि उसी के समान नागरी-सभ्यता का विस्तार अपने सम्पूर्ण राज्य-क्षेत्र में भी किया। श्रीमद्भागवत में विवरण है कि इसके लिये उन्होंने देवताओं के अभियन्ता विश्वकर्माजी की सेवाएँ लीं। यही कारण है कि समस्त सैन्धव-सभ्यता में नागरी-सभ्यता के प्रमाण मिलते हैं।
4.  देवी-देवता और उपासना-व्यवस्था
      श्रीकृष्ण स्वयं ही भगवान् विष्णु के साक्षात् अवतार थे। उन्होंने भगवद्गीता में स्वयं को बारम्बार ईश्वर रूप से प्रतिपादित किया है। अर्थात्, वह भगवान विष्णु के जीवित स्वरूप थे। भारतीय संस्कृति की परिपाटी है कि जीवित व्यक्ति की प्रतिमाएँ नहीं लगायी जातीं, इसलिए सैन्धव-सभ्यता में कहीं भगवान विष्णु की प्रतिमा नहीं मिलती।
      जिस श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था, ठीक उसी समय उनकी पराशक्ति ने यशोदा के गर्भ से अवतार लिया था। कृष्ण को यशोदा के पास और इस कन्या को कंस के कारागार में पहुँचा दिया गया था। कंस ने इस कन्या को ही देवकी की आठवीं सन्तान मान कर शिला पर पटक कर मारना चाहा तो उसके हाथों से छूटकर वह आकाश की दिशा में ऊपर जाकर देवीरूप से प्रकट हो गईं। उन्होंने कंस को बताया कि दुनिया का तारणहार और तुम्हारा संहारक जन्म ले चुका है। भगवती मनुष्यरूप में स्थित नहीं हुईं। उनके इस स्वरूप की उपासना सम्पूर्ण सैन्धव-सभ्यता में की जाती थी। इसलिए मातृ-शक्तियों की प्रतिमाएं सैन्धव-क्षेत्र में मिलीं।
      भगवान शिव और रुद्र के अनेकानेक रूपों की पूजा-उपासना सम्पूर्ण भारत में सदा से चलती आ रही है। चाहे कश्मीर में अमरनाथ हो या दक्षिण-तट पर रामेश्वरम, चाहे कैलाश पर्वत हो या काशी या उज्जैन।
5.  आनर्त्त-देश (सैन्धव-सभ्यता) का सर्वनाश  
       यदुवंशियों के विनाश की कथा पुराणों में वर्णित है—कृत्वा भारावतरणं भुवो हत्वाखिलानृपान्। शापवयाजेन विप्रणामुपसंहृतवान्कुलम्।।(वि.पु. 5/37/3)।। अर्थात् सम्पूर्ण पापी राजाओं (कुछ को स्वयं एवं कुछ का महाभारत युद्ध के म्ध्यम से) संहार  कर के उन्होंने पृथ्वी का भारावतरण किया और फिर ब्राह्मणों के शाप के कारण अपने कुल का भी उपसंहार कर दिया। यादवों की विशाल सेना, उसके सेनापति और सरदार आपस में ही उलझ कर एक दूसरे लड़कर मारे गये।
      फिर जिस दिन श्रीकृष्ण का देहावसान (परलोकगमन) हुआ, समुद्र की बाढ़ से आनर्त्त-देश का सम्पूर्ण क्षेत्र आप्लावित हो गया और द्वारका नगरी भी पुनः समुद्र में डूब गई—प्लावयामास तां शून्यां द्वारकं च महोदधिः।
      यह सम्पूर्ण पौराणिक विवरण एवं सैन्धव-सभ्यता के पुरातात्वि प्रमाण एक दूसरे से मेल खाते हैं। द्वारका-नगरी आज भी गुजरात समुद्र-तट पर है। वैज्ञानिकों ने समुद्र में डूबी द्वारका का भी पता लगा लिया है। सिन्धु नदी के क्षेत्र से लेकर गुजरात आदि का बहुत बड़ा क्षेत्र आनर्त्त-देश की सीमा के अन्तर्गत था। इसी क्षेत्र को आधुनिक इतिहासकारों ने सैन्धव-सभ्यता का नाम दिया है।
      अतएव सुनिश्चित रूप से प्रमाणित होता है कि भगवान श्रीकृष्ण द्वारा द्वारका-नगरी को केन्द्र बना कर जिस आनर्त्त-साम्राज्य की स्थापना की गई थी, वह वास्तव यादवी-सभ्यता का क्षेत्र था और इसे ही इतिहासकारों ने सैन्धव-सभ्यता का नाम दिया है।
रमाशंकर जमैयारआधुनिक इतिहासकारों के अनुसार भारतीय इतिहास का प्रारम्भ आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले सैन्धव-घाटी सभ्यता की स्थापना से हुआ था। लेकिन, पौराणिक-इतिहास के अनुसार भारतीय इतिहास इतना प्राचीन है कि इसे सनातन भी कहा जा सकता है। आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले तो कलियुग का आरम्भ हुआ था-- यदैव भगवान्विष्णोरंशो यातो दिवं द्विज। वसुदेवकुलोद्भूतस्तदैवात्रागतः कलिः।।(विष्णु-पुराण, 4/24/108)।। कलियुग से पूर्व द्वापर युग था। श्रीकृष्ण और कौरव-पाण्डव आदि द्वापर-कलि के सन्धिकाल के लोग थे। द्वापर से पूर्व त्रेता-काल था और उससे पूर्व सत्युग था। चार युगों की चौकड़ी को चतुर्युग कहा जाता है-कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिश्चैव चतुर्युगम (विष्णु पुराण, 1/3/15)। ऐसे इकहत्तर चतुर्युगों का एक मनव्तर होता है—चतुर्युगाणां संख्याता साधिका ह्येकसप्ततिः (वि.पु.,1/3/18)। वर्तमान मनवन्तर का नाम वैवस्वत मन्वन्तर है। इस मन्वतर के सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं। अट्ठाईसवाँ चतुर्युग चल रहा है। इस चतुर्युग के तीन युग भी बीत चुके हैं और यह कलियुग चल रहा है। अतः यह कह देना कि भारतीय इतिहास का प्रारम्भ सैन्धव घाटी सभ्यता से हुआ, षड़यन्त्रपूर्वक रचित विकृति है।
      सैन्धव-घाटी सभ्यता की अपनी वास्तविकता है। इसकी स्थापना भगवान श्रीकृष्ण के काल में हुई थी, इसलिए पाँच हजार वर्ष से अधिक पुरानी सभ्यता है। 1922 ईस्वी में हड़प्पा-आदि स्थलों का पुरातात्विक उत्खनन् किया गया था जिससे अनेक पुरातात्विक प्रमाण मिले।
       विदित हो कि यह विदेशी दासता का काल था। 1857 ईस्वी में महारानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, वीर कुँअर सिंह, मंगल पाँडे सरीखे राजघराने से लेकर अंग्रेजी सेना के सिपाहियों तक ने मिलकर राष्ट्रीय एकता का परचम लहराते हुए प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का युद्ध लड़ा था। भविष्य में ऐसी राष्ट्रीय एकता कभी न बन पाये, इस दृष्टि से अंग्रेजी-सत्ता ने भारतीय संस्कृति और इतिहास को विकृत करने का कार्य अंग्रेजी-सत्ता सम्पोषित इतिहासकारों को दिया।
      इन इतिहासकारों ने उत्खनन् से प्राप्त पुरातात्विक प्रमाणों की वास्तविक व्याख्या इस प्रकार है—
1.  सोलह की संख्या का सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से
      उत्खनन् से प्राप्त प्रमाणों से ज्ञात हुआ कि इस सभ्यता के लोगों ने 16 की संख्या को इकाई निर्धारण का आधार बना रखा था। 16 आनों का एक रूपया, 16 छटाँक का एक सेर आदि। सोलह की संख्या का यह आधार पिछले पाँच हजार साल से आजादी के बाद भी तबतक चलता रहा जब तक कि भारत की सरकार ने दशमलव-पद्धति नहीं लागू की।
       प्रश्न यह है कि लोगों ने 'सोलह' की संख्या को ऐसा महत्व क्यों दिया? भारतीय इतिहास की वास्तविकता को विकृत करने के लिये ये इतिहासकार इस विन्दु को गोल कर गये हैं। हम इस प्रश्न को पुनः खड़ा करते हैं।
      सोलह की संख्या का सम्बन्ध सीधे-सीधे भगवान श्रीकृष्ण से है। उनका जन्म चन्द्रवंश में हुआ था। कालयवन को अपना परिचय देते हुए श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि वे चन्द्रवंश के अन्तर्गत यदुकुल में वसुदेवजी के पुत्ररूप से उत्पन्न हुए हैं—वसुदेवस्य तनयो यदोर्वंशसमुद्भवः। विदित हो कि महाराज यदु चन्द्रवंशी थे।
      वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु आदि उत्पन्न सन्तान-परम्परा को सूर्यवंश कहा जाता है, जबकि वैवस्वत मनु की पुत्री इला से उत्पन्न सन्तति-परम्परा को चन्द्रवंश कहा जाता है। इला का विवाह चन्द्रमा के पुत्र बुध से हुआ था जिससे पुरुरवा का जन्म हुआ। इसलिए यह राजवंश चन्द्रवंशी कहलाया।
      भगवान श्रीकृष्ण चन्द्रवंशी थे। उन्हें पूर्ण-ब्रह्म का अवतार माना जाता है। चन्द्रमा की सोलह कलाएँ होती हैं, इसलिए कहा जाता है कि श्रीकृष्ण सोलहों कलाओं से पूर्ण थे। इस आधार पर सोलह की संख्या को महत्ता मिली। इससे प्रमाणित होता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता का निकटतम सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से था।
2.  श्री कृष्ण आनर्त्त-देश के शासक थे
      जिस क्षेत्र को सैन्धव-सभ्यता का क्षेत्र कहा जाता है, उसे पुराणों में आनर्त्त-देश कहा गया है। बलरामजी का विवाह जिस रेवती नामक जिस कन्या से हुआ था, उस कन्या के पिता रेवतजी ही उस देश के नरेश थे। रेवती से विवाह के कारण इस राज्य का उत्तराधिकार कृष्ण-बलराम को मिल गया।
      पूर्व में देश की राजधानी का नाम कुशस्थनी था। राजधानी का यह क्षेत्र समुद्र-तल में समा गया था, इसलिए श्रीकृष्ण ने राजधानी का वह क्षेत्र समुद्र से माँगकर वहाँ द्वारका नामक नगरी बसायी—कुशस्थली या तव भूप रम्या/पुरी पराद्भूदमरावतीव। सा द्वारका सम्प्रति तत्र चास्ते/स केशवांशो बलदेवनाम।।(विष्णु पुराण, 4/1/91)।।
3.  श्रीकृष्ण ने नागरी-सभ्यता की स्थापना की
      पुराणों में बताया गया है कि कालयवन के संहार के पूर्व ही भगवान ने द्वारका नगरी बसा ली थी और उग्रसेन समेत सभी यदुवंशियों को आनर्त्त-देश में स्थापित कर दिया था। उन्होंने अपनी राजधानी के लिए समुद्र से जो भूमि मांगी, वह समुद्र-गर्भ में समायी कुशस्थली ही थी। यहाँ उन्होंने नागरी-सभ्यता के अनुरूप न केवल अपनी राजधानी बनायी, बल्कि उसी के समान नागरी-सभ्यता का विस्तार अपने सम्पूर्ण राज्य-क्षेत्र में भी किया। श्रीमद्भागवत में विवरण है कि इसके लिये उन्होंने देवताओं के अभियन्ता विश्वकर्माजी की सेवाएँ लीं। यही कारण है कि समस्त सैन्धव-सभ्यता में नागरी-सभ्यता के प्रमाण मिलते हैं।
4.  देवी-देवता और उपासना-व्यवस्था
      श्रीकृष्ण स्वयं ही भगवान् विष्णु के साक्षात् अवतार थे। उन्होंने भगवद्गीता में स्वयं को बारम्बार ईश्वर रूप से प्रतिपादित किया है। अर्थात्, वह भगवान विष्णु के जीवित स्वरूप थे। भारतीय संस्कृति की परिपाटी है कि जीवित व्यक्ति की प्रतिमाएँ नहीं लगायी जातीं, इसलिए सैन्धव-सभ्यता में कहीं भगवान विष्णु की प्रतिमा नहीं मिलती।
      जिस श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था, ठीक उसी समय उनकी पराशक्ति ने यशोदा के गर्भ से अवतार लिया था। कृष्ण को यशोदा के पास और इस कन्या को कंस के कारागार में पहुँचा दिया गया था। कंस ने इस कन्या को ही देवकी की आठवीं सन्तान मान कर शिला पर पटक कर मारना चाहा तो उसके हाथों से छूटकर वह आकाश की दिशा में ऊपर जाकर देवीरूप से प्रकट हो गईं। उन्होंने कंस को बताया कि दुनिया का तारणहार और तुम्हारा संहारक जन्म ले चुका है। भगवती मनुष्यरूप में स्थित नहीं हुईं। उनके इस स्वरूप की उपासना सम्पूर्ण सैन्धव-सभ्यता में की जाती थी। इसलिए मातृ-शक्तियों की प्रतिमाएं सैन्धव-क्षेत्र में मिलीं।
      भगवान शिव और रुद्र के अनेकानेक रूपों की पूजा-उपासना सम्पूर्ण भारत में सदा से चलती आ रही है। चाहे कश्मीर में अमरनाथ हो या दक्षिण-तट पर रामेश्वरम, चाहे कैलाश पर्वत हो या काशी या उज्जैन।
5.  आनर्त्त-देश (सैन्धव-सभ्यता) का सर्वनाश  
       यदुवंशियों के विनाश की कथा पुराणों में वर्णित है—कृत्वा भारावतरणं भुवो हत्वाखिलानृपान्। शापवयाजेन विप्रणामुपसंहृतवान्कुलम्।।(वि.पु. 5/37/3)।। अर्थात् सम्पूर्ण पापी राजाओं (कुछ को स्वयं एवं कुछ का महाभारत युद्ध के म्ध्यम से) संहार  कर के उन्होंने पृथ्वी का भारावतरण किया और फिर ब्राह्मणों के शाप के कारण अपने कुल का भी उपसंहार कर दिया। यादवों की विशाल सेना, उसके सेनापति और सरदार आपस में ही उलझ कर एक दूसरे लड़कर मारे गये।
      फिर जिस दिन श्रीकृष्ण का देहावसान (परलोकगमन) हुआ, समुद्र की बाढ़ से आनर्त्त-देश का सम्पूर्ण क्षेत्र आप्लावित हो गया और द्वारका नगरी भी पुनः समुद्र में डूब गई—प्लावयामास तां शून्यां द्वारकं च महोदधिः।
      यह सम्पूर्ण पौराणिक विवरण एवं सैन्धव-सभ्यता के पुरातात्वि प्रमाण एक दूसरे से मेल खाते हैं। द्वारका-नगरी आज भी गुजरात समुद्र-तट पर है। वैज्ञानिकों ने समुद्र में डूबी द्वारका का भी पता लगा लिया है। सिन्धु नदी के क्षेत्र से लेकर गुजरात आदि का बहुत बड़ा क्षेत्र आनर्त्त-देश की सीमा के अन्तर्गत था। इसी क्षेत्र को आधुनिक इतिहासकारों ने सैन्धव-सभ्यता का नाम दिया है।
      अतएव सुनिश्चित रूप से प्रमाणित होता है कि भगवान श्रीकृष्ण द्वारा द्वारका-नगरी को केन्द्र बना कर जिस आनर्त्त-साम्राज्य की स्थापना की गई थी, वह वास्तव यादवी-सभ्यता का क्षेत्र था और इसे ही इतिहासकारों ने सैन्धव-सभ्यता का नाम दिया है।
रमाशंकर जमैयार 

बुधवार, 17 अगस्त 2011

विश्वामित्र और मेनका-एक विश्लेषणात्मक अध्ययन


ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका
भारतीय अध्यात्म नारी को भोग्या नहीं, शक्तिरूप बताता है, चाहे वह प्रेमिका हो या पत्नी।
भारत के ऐतिहासिक गाथाओं में चाहे उसे आधुनिक काल के उपन्यासकार आचार्य चतुरसेन ने लिखा हो या पुराणकारों ने, पत्नी या प्रेमिका के रूप में नारी का चित्रण भोग्या के रूप में नहीं, बल्कि 'शक्ति-स्वरूपा' के रूप में किया गया है। आचार्य चतुरसेन के चित्रलेखा एवं आम्रपाली उपन्यासों में भी यही दीखता है। ये नायिकाएँ अपने समय के महान् योगियों के समकक्ष ही नहीं, कभी-कभी उनसे श्रेष्ठ दिखाई देती हैं। उनके रूप-सौन्दर्य और भोग-वैभव में भोगवादी कालिमा नहीं, आध्यात्मिक चाँदनी बिखरी मिलती है। इसके विपरीत सीजर और क्लियोपेट्रा की यूरोपियन गाथाओं में नारी की शारीरिक मादकता और भोग्या का स्वरूप झलकता है जिसका उपयोग वह अपने लाभ के लिए करती है।
पाश्चात्य संस्कृति शारीरिक आधार पर सेक्स की पहचान शारीरिक भूख के रूप में करती है। इसके ठीक विपरीत, भारतीय संस्कृति इस सिद्धान्त को सिरे से नकारती है। उसके पास आधार है वैदिक विज्ञान का जिसमें शरीर और आत्मा की प्रकृति का वैज्ञानिक विवरण शामिल है। इस विषय पर हम ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की प्रेम-गाथा के माध्यम से विवकण प्रस्तुत करना चाहेंगे।
आधुनिक इतिहासकारों ने पुराणों से चक्रवर्त्ती सम्राट भरत का प्रसंग उठाया है और बताया है कि इन्हीं के नाम पर इस देश का नाम 'भारत' पड़ा। इनके पिता पुरुवंशी राजा दुष्यन्त थे और माता थीं शकुन्तला। इसलिए, शकुन्तला का सम्बन्ध  भारतीय इतिहास से है। पुराणों में बताया गया है कि महाराज दुष्यन्त ने शकुन्तला की रूप-कान्ति पर रीझकर उनसे प्रेमविवाह किया था। वह मेनका नामक अप्सरा की पुत्री थीं, इसलिए स्वाभाविकरूप से परम सुन्दरी थीं। उनकी पहली मुलाकात वनों में स्थित कण्व ऋषि के आश्रम के निकट हुआ था। परिचय पूछने पर शकुन्तला ने उन्हें बताया कि वह विश्वामित्रजी की पुत्री है और उसकी माता मेनका ने उन्हें यहाँ (ऋषि आश्रम) में छोड़ रखा है—विश्वामित्रात्मजैवाहं त्यक्ता मेनकया वने (श्रीमद्भागवद, 9/20/13)।
इसप्रकार, ऋषि विश्वामित्र और मेनकाimages (3).jpg का सम्बन्ध भी भारतीय इतिहास से है।

भारत को लोग विश्वामित्र को एक 'ऋषि' के रूप में जानते हैं। वैदिक विज्ञान में ऋषि शब्द का विशेष अर्थ है। पहली बात तो यह कि उन्हें ही वैदिक-ऋचाओं का 'द्रष्टा' माना जाता है और दूसरी बात यह कि उन्हें 'अमर' बताया जाता है। विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्माजी ने आरम्भ में नौ मानस-पुत्रों को उत्पन्न किया--अथान्यान्मानसान्पुत्रान्सदृशानात्मनोऽसृजतम (वि.पु.,1/7/4)। इनमें वशिष्ठ, भृगु, अत्रि आदि के नाम पौराणिक आख्यानों में बराबर आते हैं। ये ब्रह्मा के पुत्र होने के कारण अमर थे।
परन्तु, विश्वामित्र इनसे भिन्न थे। उनका जन्म मानव-वंश में हुआ था। वे जाह्नु-वंश के सम्राट कुशाम्ब के पौत्र और गाधि के पुत्र थे। बाद में उन्होंने अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त कर वीर क्षत्रिय की भाँति राज्य भी किया। विवाहकर पुत्रादि भी उत्पन्न किये।
फिर भी, विश्वामित्र की गणना पूर्वोक्त अमर ऋषियों की श्रेणी में की जाती है। इन्हें उन सप्तर्षियों में से एक माना गया है जो ध्रुव-तारे की परिक्रमा करने वाले सप्तर्षि संज्ञक तारामंडल के अधिपति हैं—वसिष्ठः काश्यपोऽथात्रिर्जमदग्निस्सगौतमः। विश्वामित्रभरद्वाजौ सप्त सप्तर्षयोऽभवन।।(विष्णु पुराण, 3/1/32)।। तात्पर्य यह है कि वे मानव-जाति के उन विभूतियों में से है जिन्होंने मनुष्य-योनि में जन्म लेकर भी अमरत्व और ऋषित्व प्राप्त किया।
अमरत्व और ऋषित्व प्राप्त करने वाले विश्वामित्र निश्चय ही महान तपस्वी एवं सिद्ध-योगी थे। तपस्या के क्रम में ही उनकी मुलाकात अप्सरा मेनका से हुई। फिर, मेनका की याचना पर उन्होंने उसे सन्तान-सुख प्रदान किया जिसके फलस्वरूप शकुन्तला का जन्म हुआ।
भारतीय संस्कृति में जहाँ अप्सराओं को स्त्री-सौन्दर्य का सबसे सुन्दर रूप माना जाता है, वहीं अन्यान्य संस्कृतियों के ग्रन्थों में भी परियों की कहानी आती है और इन्हें भी स्त्री-सौन्दर्य का सबसे सुन्दर रूप माना गया है। इन्हें मनुष्य-लोक से भिन्न परीलोक का निवासी माना गया है। हातिमताई की कहानियों में ऐसी कुछ परियों की चर्चा है। कुछ लोग इन कहानियों को गल्प-कथा मानते हैं। लेकिन, वैज्ञानिकों को उड़न-तश्तिरयों और एलियन्स के प्रमाण मिल चुके हैं और यह स्वीकार किया जा चुका है कि एलियन्स (परलोकवासी) भी हैं जिनका विज्ञान हमारे विज्ञान से बहुत आगे है।
भारतीय ग्रन्थों में अप्सराओं को देवराज इन्द्र के स्वर्गलोक का निवासी बताया गया है और उन्हें देवराज इन्द्र के अधीन माना गया है। कहा जाता है कि देवराज इन्द्र द्वारा उनका उपयोग कई बार तपस्वियों की तपस्या को भंग करने के लिये भी किया जाता है, क्योंकि उनके रूप-सौन्दर्य का आकर्षण अत्यन्त प्रबल होता है—धरती की नारियों की तुलना में बहुत ही अधिक। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि क्या इन्द्र ने मेनका को भी विश्वामित्र की तपस्या भंग करने को भेजा था?
इस सम्बन्ध में स्पष्टरूप से कहा जा सकता है कि इन्द्र को विश्वामित्र से किसी प्रकार की ईष्या नहीं थी, क्योंकि वे तो स्वयं देवराज इन्द्र के पुत्र थे। इस सम्बन्ध में विष्णु पुराण में बताया गया है कि विश्वामित्रजी के पितामह .कुशाम्ब की इच्छा थी कि उसका इन्द्र के सामान प्रतापी एक पुत्र उत्पन्न हो। इस निमित्त उसने घोर तप किया—तेषां कुशाम्बः शक्रतुल्यो मे पुत्रो भवेदिति तपश्चकार (वि.पु., 4/7/9)। देवराज को भय हुआ कि कुशाम्ब के पुत्ररूप से कहीं कोई दूसरा इन्द्र न उत्पन्न हो जाए, इसलिए स्वयं इन्द्र ही उसके पुत्ररूप से अवतरित हो गये और गाधि के नाम से जाने गये जो विश्वामित्र के पिता थे।
अतः, देवराज इन्द्र प्रकारान्तर से विश्वामित्रजी के पिता थे। वे उनकी तपस्या की सिद्धि चाहते थे। इसलिये उन्होंने  योगसिद्धि में उनकी सहायिका बनाकर उनके पास भेजा।
हर सामान्य व्यक्ति स्त्री के रूप-सौन्दर्य को भोग की वस्तु तो मान सकता है, लेकिन तपस्या में सिद्धि का कारक मानने को तैयार नहीं होगा। परन्तु, योग और अध्यात्म के विज्ञान में स्त्री को सिद्धि का कारक बताया गया है—
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण जीवात्मा के सम्बन्ध में कहते हैं—सर्वयोनिषु कौन्तेय मूत्तर्यः सम्भवन्ति या। तासां ब्रह्म मह्द्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।(14/4)।। वे अर्जुन से कहते हैं-हे अर्जुन (कौन्तेय)! प्रत्येक योनि की जो वाह्याकृति (मूर्त्ति) होती है (सम्भवन्ति वा)। वह महद्-ब्रह्म (ब्रह्म महद्) का बलात्मक घेरा है (जिसे पराशक्ति या माया के नाम से भी जाना जाता है।  उस वाह्याकृति (वाह्य-परिच्छेद) की बीज-शक्तिरूप से (बीजप्रदः) मैं (अहं) स्वयं स्थित हूँ, इसलिए सबका पिता हूँ।
विदित हो कि बीजशक्ति का अर्थ है केन्द्र-शक्ति। अर्थात् केन्द्र पर स्थित विन्दुरूप शक्ति। श्रीकृष्ण बताते हैं कि जीवात्मा के केन्द्र पर परब्रह्म विन्दुरूप नित्य शक्ति है। इसे प्रजापति भी कहते हैं। जीवात्मा के ही सन्दर्भ में बृहदारण्यकोपनिषद (5/9/1) में बताया गया है कि यह विन्दुरूप 'ब्रह्म' अकेला नहीं रहना चाहता ( स नैव रेमे तस्मादेकाकी)। एक से दो होने की इच्छा से (स द्वितीयमैच्छत्) वह चने की दाल की तरह आधा-आधा होकर दो भागों में विभाजित हो जाता है। इनमें से एक स्त्रीरूप है और दूसरा पुरुषरूप (स्त्रीपुमांसौ संपरिष्वक्तौ)। यह स्त्रीरूपा-भाग ही योग-शास्त्रों में कुण्डलिनी-शक्ति के नाम से प्रसिद्ध है और पुरुषरूप-भाग को सदाशिव नाम से जाना जाता है। ये दोनों एक ही शक्ति के दो स्वरूप हैं, परस्पर पति-पत्नी रूप हैं, इसलिए इन दोनों में घोर आकर्षण रहता है। इन दोनों को परस्पर मिलने से बाधित करने के लिए ही मानव-योनि में षटचक्रों की व्यवस्था है। षटचक्रों में सबसे नीचे मूलाधार चक्र है जो कुण्डलिनी-शक्ति का स्थान है और सबसे ऊपर सहस्रार चक्र है जो सदाशिव का स्थान है।
यह स्थिति स्त्री और पुरुष, दोनों में ही समानरूप से रहती है। फिर भी, दोनों में स्पष्ट अन्तर यह है कि स्त्री कुण्डलिनी-प्रधाना होती है और पुरुष सदाशिव-प्रधान होता है। हम यह समझते हैं कि पुरुष के शरीर को देखकर स्त्री और स्त्री के शरीर को देखकर पुरुष आकर्षित होता है, लेकिन यह वाह्य-भ्रम भर है। यहाँ तो पुरुष का सदाशिव स्त्री की कुण्डलिनी-शक्ति के प्रति तथा स्त्री की कुण्डलिनी-शक्ति पुरुष के सदाशिव के प्रति आसक्ति व्यक्त करता है।
योग-साधना में कुण्डलिनी-शक्ति को जाग्रत किया जाता है। इससे वह एक-एक कर ऊपर के चक्रों का भेदन करते (पार करते) हुए सहस्रार-चक्र स्थित सदाशिव से जा मिलती है और उसके साथ संयुक्त हो जाती है। फिर वे दोनों हृद्य-स्थित अनहद-चक्र पर आकर स्थित हो जाते हैं। यही योग की पूर्णता है। इसी स्थिति को मोक्ष कहा जाता है। यहाँ ब्रह्म अपने पूर्ण-स्वरूप में स्थित रहता है, इसलिए इस स्थिति का योग-विद्या द्वारा व्यावहारिक ज्ञान ही ब्रह्म-ज्ञान है।
विश्वामित्र और अप्सरा मेनका
विश्वामित्रजी ब्रह्म-ज्ञान अर्थात् मोक्ष-प्राप्ति की ही साधना कर रहे थे। इसमें पहले ध्यान को एकाग्र कर मन की चंचलता को दूर किया जाता है, क्योंकि चंचलता-विहीन स्थिति मे ही मन योग का साधन बन पाता है। वह कुण्डलिनी-शक्ति-के गिर्द भ्रमर की तरह उसके चारों ओर घूमने लगता है जिससे कुण्डलिनी-शक्ति जाग्रत होने लगती है। विश्वामित्र जी को इस स्थिति तक पहुँचने में ही बाधा हो रही थी। वे क्षत्रिय-वंश के थे, इसलिए उनमें क्रोध अधिक था।
ऐसे समय में उन्हें एक ऐसी वाह्य-शक्ति की आवश्यकता थी जो एक झटके से उनके ध्यान को एकग्र कर उनके मन की चंचलता भी दूर कर दे और साथ ही साथ उनकी कुण्डलिनी-शक्ति को भी जाग्रत कर दे। ये दोनों ही शक्तियाँ नारी-सौन्दर्य में है। यह व्यावहारिक तथ्य है कि कोई सुन्दरी जब समक्ष आ जाती है तो आँखें उसी पर जम जाती हैं। केवल आँखें ही नहीं, पूरा ध्यान ही उस पर एकाग्र हो जाता है। ध्यान की एकाग्रता का आलम यह होता है कि कभी-कभी आस-पास के माहौल का भान भी नहीं रहता।
मेनका स्वर्ग की अप्सरा थी, किसी भी मानवी की तुलना में उसके रूप-सौन्दर्य का आकर्षण प्रबलततर था। इसके कारण विश्वामित्र को उसके रूप-सौन्दर्य के ध्यान से ही एकाग्रता की प्राप्ति हो गई—मन एकाग्र हो गया। नारी होने के कारण वह कुण्डलिनी-प्रधाना थी और अप्सरा होने के कारण इसरूप में भी प्रबलतम थी। फलस्वरूप, विश्वामित्रजी शीघ्र ही न केवल ध्यानस्थ हो पाये, बल्कि अपनी कुण्डलिनी-शक्ति को भी जाग्रत कर पाये। फलस्वरूप उन्हें शीघ्र ही कुण्डलिनी-शक्ति और सदाशिव के अनहद-चक्र पर स्थित होने का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त हो गया और उनके योग की सिद्धि हो गई।
इनकी योग-सिद्धि में सहायिका बनी मेनका ने विश्वामित्रजी का आध्यात्मिक उपकार किया था। इसके एवज में वह उनसे कुछ भी मांग पाने के योग्य थी। उसने विश्वामित्र को निरन्तर अपनी स्मृति में बनाये रखने के लिए उनसे सन्तान की मांग की। इससे मेनका ने शकुन्तला को पुत्रीरूप से जन्म दिया।
रमाशंकर जमैयार