मंगलवार, 12 सितंबर 2023

चिदानंदरूपं शिवोहम्


पिछले विडियो ‘सत्यम् शविवम् सुन्दरम् में चर्चा थी कि ईश्वर ही मौलिक ‘सत्य है। उसका मौलिक गुण है कि वह सत्य है और इसकारण शिव अर्थात् कल्याणकारी है। साथ ही, वह अनुभूति योग्य भी है। उसकी अनुभूति आनन्द के रूप में होती है।

इसकी पूर्ण व्यख्या भाररतीय ज्ञान-परम्परा (दर्शन) के माध्यम से ही सम्भव है। हम दर्शन और साईंस की परस्पर भिन्नता की चर्चा अगले किसी वीडियो में करेंगे। फिर भी यह समझना आवश्यक है कि साईंस का ज्ञानात्मक आधार ‘भौतिकता (पदार्थ-आधारित) है जबकि दर्शन का ज्ञानात्मक आधार ‘दिव्यता (ऊर्जा-आधारित) है।

साथ ही यह भी समझना अभीष्ट है कि साईंस के आधार पर ‘अनुभूति के अन्तर्गत इन्द्रिय और मस्तिष्क (बुद्धि) की क्रियाएँ ही शामिल रहती हैं जबकि दर्शन के आधार पर इसमें इन्द्रिय और मस्तिष्क के साथ-साथ ‘मन की क्रिया भी शामिल होती है।

वैसे, अपनी प्रगति के क्रम में साईंस भी मन को स्वीकार कर चुका है, परन्तु जो व्याख्या हमें प्राप्त होती है, वह अपूर्ण है।

 इसके लिये हम ध्यान और मन पर विचार कर सकते हैं। यह पाया जाता है कि जिस वस्तु पर हमारा ध्यान बना रहता है, उसकी अनुभूति हो जाती है। लेकिन, जिस वस्तु पर हमारा ध्यान नहीं होता, उसकी अनुभूति नहीं हो पाती। इसका अर्थ यह है कि ध्यान वास्तव में मन की ही ‘शक्ति है जिसके जरिये मन इन्द्रियों पर पनना नियन्त्रण बनाये रखता है। इस तथ्य तो भारतीय दर्शन के अनुकूल है। यह ‘ध्यान एक वास्तविकता है और चूँकि यह भौतिक सत्ता नहीं बल्कि शक्ति है, इसलिए साईंस इसकी वैज्ञानिक व्याख्या नहीं कर पाया है। फिर भी, मनोविज्ञान के अन्तर्ग इसे स्वीकार किया जाता है।

भारतीय दर्शन बताता है कि मन को एकाग्र करने से उसकी ध्यान-शक्ति क्रमिकरूप से जाग्रत होती जाती है। अतः मन (चित्त) की दो अवस्था होती है—चंचलावस्था और शान्ताव्सथा। जब मन की ध्यान-शक्ति पूर्णतः जाग्रत होती है तो मन की उस अवस्था को उसकी शांत-अवस्था कहा जाता है। मन की इस शांत अवस्था को ही उसका मौलिक-स्वरूप कहा गया है।

 

Pratyaksham Kim Pramanam


            आधुनिक युग में अक्सर ‘विज्ञान की बातें की जाती हैं, विशेषकर भारतीय विद्वत् समाज में। इनमें से कई तो परम्परागत भारतीय ज्ञानपरम्परा को पाश्चात्य विचारधारा के अनुरूप इस परम्परगत ज्ञानात्मक प्रस्तुतियों को कपोल-कल्पना (मिथ) मानते और बताते हैं। ऐसा क्यों के सवाल पर क्रमिक रूप से विस्तृत चर्चा की आवश्यकता है।

      भारतीय ज्ञान-परम्परा को मिथक कहें या विज्ञान, सहज रूप से इन्हें ‘दर्शन’ की संज्ञा दी जानी चाहिये। तत्काल स्थिति यह है कि अंग्रेजी के शब्द फिलोसोफी के हिन्दी रूपान्तरण के लिए दर्शन शब्द का प्रयोग अक्सर किया जाता है, जो न केवल गलत है अपितु जानबूझकर रचा गया षड़यन्त्र है। यह स्पष्ट समझा जा सकता है कि दर्शन का तात्पर्य ठीक ढंग से देखसुन और समझ कर जाना गया ज्ञान है—प्रमाणित जानकारी है। यह तो ‘दर्शन’ के शाब्दिक अर्थ से ही स्पष्ट हो जाता है।

      अपनी चर्चा का आरम्भ हम मनुष्य के स्वसन-प्रक्रिया से करेंगे। इस प्रक्रिया की जानकारी साईंस के माध्यम से भी प्राप्त है और अपने अनुभवों से भी जाना-समझा जा सकता है। मूल बात यह है कि एक नासिका है जिसके दो रन्ध्र हैं। बायें हाथ की और का रन्ध्र वाम-रन्ध्र है, और दूसरा दक्षिण-रन्ध्र। इन्हीं रन्ध्रों से श्वास खीची जाती है और फेंकी जाती है। 

      एक सहज प्रश्न उठता है कि किस नासिका रन्ध्र से साँसें खींची जाती हैं और किससे फेंकी जाती हैं। नासिका रन्ध्र दो हैं, इसलिए यह प्रश्न उठ खड़ा होता है।

यहाँ पर तीन स्थिति हो सकती है—

      पहली यह कि एक नासिका-रन्ध्र से साँसें खींची जाती हैं और दूसरी से फेंकी जाती हैं।

 

 

 साईंस (विज्ञान) के नाम पर भारतीय दर्शन और इतिहास को अवैज्ञानिक और कपोल कल्पना सिद्ध करने की कुचेष्टा बहुत पुराणी है- ----काल से आजतक। इस बीच साईंस ने भी ऐसे कई प्रमाण ढूँढ निकाले हैं जो भारतीय दर्शन और इतिहास को सत्यपरक् सिद्ध करने लगे हैं। इसमे सम्बन्धित विवरण पर कई प्रकार से विवरण अंकित किये जा सकते हैं। इन विवरणों को फिलहाल टालते हुए कुछ ऐसे तथ्यों की ओर बढ़ते हैं जो स्वयं में ही प्रमाणस्वरूप क्योंकि ये प्रत्यक्ष-दर्शन या प्रमाणिक अनुभूति के रूप में हमें प्राप्त हो जाते हैं।

श्वासका लेना-छोड़ना ही जीवन का कारण है और प्रमाण भी। यही व्यवहारिक जीवन में पाया भी जाता है।

 

            चन्द्रमा पर चन्द्रयान का लैन्डर

दिनांक 23-8-2023 को भारतीय चन्द्रयान-3 का लैंडर चन्द्रमा के उत्तरी धरातल पर उतरा। इस विन्दु (point) को भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने ‘शिवशक्ति की संज्ञा दी है। यह नाम सर्वथा उचित है। कारण यह है कि भारतीय मान्यताओं के अनुसार चन्द्रमा का सीधा सम्बन्ध भगवान शिव और उनकी शक्तिरूपा भगवती पार्वती से सीधा सम्बन्ध है। ‘चन्द्र को भगवान शिव के ललाट की शोभा माना गया है। अर्थात्, चन्द्रमा को शिवजी अपनी ललाट पर धारण करते हैं। साथ ही, ऊर्जा (शक्ति) की दृष्टि से वह (चन्द्रमा) ‘सोम का प्रतीक है। शिव की भार्या स्वयं सोम संज्ञक शक्ति-स्वरूपा हैं। वैदिक विज्ञान के अनुसार ऊर्जा की दृष्टि से पृथ्वी ‘अग्नि-प्रधान’ है जिस कारण उसे अग्निगर्भा कहा गया है। और, चन्द्रमा ‘सोम-प्रधान’ माना गया है जिस कारण उसका प्रकाश शान्त और शीतल अनुभव किया जाता है। इन दोनों तथ्यों का प्रणाण हम सबों को प्रत्यक्षरूप से मिल जाता है। इसलिए, स्थिति की दृष्टि से चन्द्रमा का सम्बन्ध ‘शिव और ‘सोम प्रधानता के कारण ‘शक्ति से है। ये दोनों ही कथन सत्यात्मक हैं—प्रत्यक्ष हैं। इन सबकी व्याख्या भारतीय विज्ञान (वैदिक विज्ञान) करता है जिसे सामान्य शब्दों में ‘दर्शन कहा जाता है।

धरती और शिव का सम्बन्ध

भूगोल सम्बन्धी विवरणों में ‘पृथ्वी के का जिस प्रकार से उल्लेख किया गया है, उस इस धरती पर एक पर्वत है ‘कैलाश जिसे भगवान शिव का स्थान बताया गया है। इसकारण उन्हें ‘कैलाशपति के नाम से भी जाना गया है।  त दचन्द्रमा  इस दृष्टि से प्रधानमंत्री मोदी का वह नामकरण बिल्कुल सही और यथोचित है। हम प्रत्येक वस्तु को भौतिक चश्मे से देखने के आदि हो गये हैं। हमें ऊर्जा-तत्व (energy) की दृष्टि से देखने चाहिये। इस दृष्टि से देकेंगे तो समझ में आ जायेगा कि ‘शिव और शक्ति का वैज्ञानिक और भौतिक दृष्टि से विराट सम्बन्ध है।पूजनादिहम पूरी तरह ध्यान देने से चूक जाते हैं। इसके पीछे का कारण यह है कि जिस समय इन पुराणों का अध्ययन अंग्रेजी-ज्ञान आधारित विद्वानों ने किया उस का साईंस उतना विकसित नहीं था जितना की आज (इक्कीसवीं) सदी में है। हम पूर्व के साईंटिफिक ज्ञान के आधार पर ही उन विवरणों को समझना चाहते हैं। फलतः बड़ी गल्तियाँ हो जाती है।

पूजनादि कार्यों के क्रम में ‘आसन-शुद्धि संज्ञक एक मंत्र पढ़ा जाता है जो असल में पृथिवी की स्तुति से सम्बन्धित है। इसमें पृथिवी की स्तुति में कहा गया है—‘‘एहि पृथिवी, त्वयं धृता लोकां देवि, त्वं विष्णुणांधृता, त्वं चा धारय मां देवि। पवित्रं कुरु चासन्।’’ इस स्तुति से ज्ञात होता है कि यह पृथिवी लोकों (सात लोकों) को धारण करती है (त्वयं धृता लोकां देवि)। साथ ही, वह सूर्यरूप विष्णु को भी अपने ऊपर धारण करती है (त्वं विष्णुणांधृता)। पौराणिक विवरणों में के धरती के दो स्वरूपों का विवरण मिलता है—सप्तद्वीपवती पृथिवी और हमारी यह धरती जिसे पृथ्वी कहा गया है। विष्णुपुराण के द्वितीय अंश के दूसरे अध्याय में भूगोल (गोलाकार धरती) के विवरण में बताया गया है कि सप्तद्वीपवती इस धरती पर विख्यात पर्वत है ‘कैलाश’। भारत के धर्मग्रन्थों में और लोकमान्यताओं में इसे भगवान शिव का स्थान माना गया है। ऐसी मान्यताओं का कारण इसमें कुछ अलौकिकता का प्रत्यक्ष दर्शन है। हिमालय पर्वतश्रृंखला का सबसे ऊँचा पर्वत में इससे भी ऊँचा है कारण है कि यह बड़ा रहस्मय पर्वत है। इसका आकार और वर्ण दोनों ही रहस्यमय है।  जिसे भगवान शिव का स्थान बताया गया है। इसकारण उन्हें ‘कैलाशपति के नाम से भी जाना गया है।  त दचन्द्रमा  इस दृष्टि से प्रधानमंत्री मोदी का वह नामकरण बिल्कुल सही और यथोचित है। हम प्रत्येक वस्तु को भौतिक चश्मे से देखने के आदि हो गये हैं। हमें ऊर्जा-तत्व (energy) की दृष्टि से देखने चाहिये। इस दृष्टि से देकेंगे तो समझ में आ जायेगा कि ‘शिव और शक्ति का वैज्ञानिक और भौतिक दृष्टि से विराट सम्बन्ध है।

इसके लिये विज्ञान का आश्रय लिया जाना चाहिये। विज्ञान के दो रूप या प्रकार हैं—‘साईंस और ‘दर्शन। पाश्चात्यवादी विज्ञान को ‘साईंस कहा जाता है, जैसा कि उन्होंने स्वयं इसका नाम दिया है। भारतीय विज्ञान को ‘दर्शन की संज्ञा दी गई है। कुछ विद्वान भ्रमवश दर्शन को फिलोसफी समझने की चेष्ठा करते हैं जो की सर्वथा गलत और दोषपूर्ण है। फिलोसफी (philosophy) का तात्पर्य उस ज्ञान से है जिसे प्रमाणित करना अभी शेष है। .... ।  ‘सोम’ एक प्रकार की शक्तिमूलक ऊर्जा है। यह शक्ति और स्थिति प्रदान करती है। कहा गया है—‘सोमेनादित्यः बलिनः। अर्थात् सूर्य आदि आदित्य-देवता सोम से ही बलवान हैं। को सोम  देवताओं को इसी सोम । यह वस्तुतः विद्युत-शक्ति ही है। इसके दो रूप बताये गये हैं-सौम्य और उग्र। सौम्यरूप में इसे ही ‘सोम’ कहा जाता है जबकि इसके रौद्ररूप को ‘अग्नि’ कहा जाता है। वेदों में भी बताया गया है कि ‘अग्नि षोमात्मकं जगत्।’ अब सूर्य ‘अग्नि’ का प्रतीक है तो चन्द्र ‘सोम’ का। विदित हो कि योग विद्या में भी इसका उल्लेख है। इड़ा नाड़ी चन्द्र-शक्ति (सोम) का वहन करती है और पिंगला सूर्य शक्ति (अग्नि) का।

 चन्द्र और सूर्जो शक्ति (तापकत) और सौम् के विद्युत-शक्ति के ही दो रूप हैं—अग्नि और सोम। सोमस्वरूप में यह ऊर्जा शान्त और सौम्य है, जबकि अग्नि उसका ही रौद्रस्वरूप है। ऊर्जा के इस सौम्यरूप को शिवजी अपने मस्तक पर धारण करते हैं, इसलिये चन्द्रमा उनके ललाट की शोभा है। विदित हो कि सूर्य को शक्ति के रौद्ररूप का प्रतीक है।

 

 

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एकोअहम् द्वितीय नासित

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रविवार, 18 सितंबर 2011

दलित समाज और छूआछूत की रूढ़िवादी परम्परा


भारत की प्राचीन समाजिक व्यवस्था में कई प्रकार की विसंगतियाँ हैं। इनमें अन्याय आधारित व्यवस्थाएँ एवं परम्पराएँ भी हैं जिसके लिए मुख्यरूप से धार्मिक सिद्धान्तों को दोषी माना जाता है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म के कई मूलभूत सिद्धान्तों को विद्वानों द्वारा रूढ़िवादी और अन्धविश्वासजनित भी कहा गया है। भारत की दलित जातियाँ ऐसी रूढ़िवादिता और अन्धविश्वास का शिकार हुई हैं। इनमें से कई जातियाँ तो छूआछूतरूप विषमताओँ के शिकार हैं और रूढ़िवादी समाज इन्हें मन्दिरों में प्रवेश तक की इजाजत नहीं देना चाहता। राज्य-सत्ता ऐसी विषमताओं को स्वीकार नहीं करती, यही उनके लिए सन्तोष की बात है।
      स्वामी विवेकानन्द से लेकर महात्मा गाँधी तक ने हिन्दू-धर्म (सनातन धर्म) की अच्छाईयों की विवेचना की हैं। इसे उदारवादी एवं भोगवाद का विरोधी अर्थात् आध्यात्मवादी बताया है। इसलिए, सहज प्रश्न उठता है कि ऐसा हो तो फिर इसमें ऊँच-नीच और छूत-अछूत जैसे भेदभाव कहाँ से आए और कब से आए?
 (1) पुराण और मनु-स्मृति
      धर्म के तथाकथित मठाधीशों द्वारा पुराणों और मनु-स्मृति के आधार पर बताया जाता है कि ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की उत्पत्ति स्वयं की है और यह रचना जिस प्रकार से की है, वह स्वतः ऊँच-नीच के भेद का नियोजक है। इसके लिए विष्णु-पुराण के निम्नांकित श्लोक को प्रस्तुत किया जाता है—ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम। पादोरुवक्षःस्थलतो मुखतश्च समुद्गता।।(विष्णु पुराण, 1/6/6)।। अर्थात्, ब्रह्माजी के पैर (चरणों) से शूद्र, जानु से वैश्य, वक्षःस्थल से क्षत्रिय तथा मुख से ब्राह्मण की उत्तपत्ति हुई।
      इस श्लोक का अर्थ तो यही है जिसके आधार पर धर्मसत्ता के मठाधीश यह समझने-समझाने में सफल हो जाते हैं कि ईश्वर ने ही ऊँच-नीच के भेदभाव के साथ चार प्रकार के मुष्यों की उत्पत्ति की। यह व्याख्या ठीक वैसी ही है, जैसे वकील कचहरियों में किसी कानून की धारा की कुतार्किक व्याख्या अपने मुव्वकिल के स्वार्थ के सन्दर्भ में कर दिया करते हैं।
      हम यहाँ बता दें कि ब्रह्माजी ने चार प्रकार की जो रचना की, वह रचना मुष्य की नहीं, बल्कि वर्णों की थी—सर्वाश्चातुर्वण्यमिदं ततः (वि.पु., 1/6/5)।। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि मनुष्य सत्ता या प्राणी-बोधक शब्द है, जबकि वर्ण गुण-बोधक शब्द है। वैसे भी, वर्ण का अर्थ होता है रंग, इसलिए यह गुणात्मक शब्द है। हम यह कह सकते हैं कि ब्रह्माजी ने मनुष्य के चार सामर्थ्यों (गुणों) को भी उत्पन्न किया। वे हैं—ज्ञान-शक्ति (ब्राह्मण-वर्ण), बल-शक्ति (क्षत्रिय-वर्ण), अर्थ-शक्ति (वैश्य-वर्ण) और सेवा-शक्ति (शूद्र-वर्ण)।
      डार्विन ने अपने सापेक्षता सिद्धान्त के अन्तर्गत बताया है कि प्रारम्भिक मनुष्य की उत्पत्ति वनमानुष से उसकी अगली पीढ़ी के रूप में हुई, इसलिए आदि-मानव पशु की भाँति ज्ञान से शून्य था। इसके ठीक विपरीत, पुराण का ऊपरोक्त सिद्धान्त बताता है ईश्वर ने मनुष्य के लिए बुद्धि (ज्ञान), बल, अर्थ और सेवा का सामर्थ्य भी आरम्भ से ही प्रदान किया था। इस वैज्ञानिक कथ्य की व्याख्या हम समाज को विकृत करने वाले सिद्धान्त के रूप में कर बैठें तो हमसे अधिक मूर्ख कौन होगा? यहाँ सुस्पष्ट है कि यहाँ जिन्हें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का नाम दिया गया है, वे मनुष्य नहीं, मनुष्य की क्षमताओं अर्थात् गुणों के नाम हैं। इसलिए, वर्णों के आधार पर मनुष्य को वंशानुगत रूप से ऊँच-नीच में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता। ऐसा करना धार्मिक सिद्धान्तों एवं कथ्यों का अपमान होगा।
  (2) शुद्धि की भावना और कर्म-काण्ड का शुद्धि-मन्त्र
      ऊँच-नीच के भेदभाव का एक आधार है शुद्धि की स्थिति अर्थात् पवित्रता और अपवित्रता। धार्मिक कर्मकाण्डों में गंगाजल से शुद्धिकरण किया जाता है, क्योकिं यह माना जाता है गंगा की उत्पत्ति भगवान विष्णु के चरणों से हुई है, इसलिए यह सबसे शुद्ध है। पुराणों में भी स्वीकार किया गया है कि गंगाजी की उत्पत्ति भगवान विष्णु के चरणों से हुई है। ध्रुव तारे को भगवान विष्णु का पद-स्थानीय लोक माना गया है, इसलिए उसे विष्णु-पद भी कहा गया है। इसी विष्णुपद से पाण्डुवर्ण हुई-सी सर्वपापहारिणी गंगा उत्पन्न हुई हैं—ततः प्रभवति ब्रह्मन्सर्वपापहरा सरित्। गङ्गा देवाङ्गनाङ्गानामनुलेपनपिढ्जराः।।(वि.पु.,2/8/108)।। जरा विचार करें कि भगवान के चरणों से निकला जल जब इतना महिमाशाली हो सकता है, तब स्वयं भगवान विष्णु की महिमा कैसी होगी!
      पूजनादि अवसरों पर पंडित हाथ में जल थमा कर शुद्धि-मन्त्र का उच्चारण करते हैं और उस जल को देह पर छिड़कने को कहते हैं। माना जाता है कि इससे शुद्धि हो जाती है। प्रश्न यह है कि पात्र में गंगाजल लिया ही जाता है, फिर शुद्धि-मन्त्र की क्या आवश्यकता?
      इस आवश्यकता को समझने के लिए हमें शुद्धि-मन्त्र का अर्थ समझना होगा। मन्त्र और मन्त्र का अर्थ निम्न प्रकार से है—
      ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थां गतोऽपि वा, यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं सः वाह्याभ्यान्तरः शुचिः। अर्थात्, कोई व्यक्ति चाहे पवित्र हो या अपवित्र (अपवित्रः पवित्रो वा); वह चाहे शौचावस्था (अशुद्ध अवस्था) में हो या अशौचावस्था (शुद्ध अवस्था) में (सर्वावस्थां गतोऽपि वा) [अवस्था दो प्रकार की होती है—शौचावस्था और अशोचावस्था, इसलिए सर्वावस्थां पद का उपयोग किया गया है], जैसे ही वह भगवान विष्णु (पुण्डरीकाक्ष) का स्मरण करता है (यःस्मरेत् पुण्डरीकाक्षं), वह बाहर और भीतर से पवित्र हो जाता है (सः वाह्याभ्यान्तरः शुचिः)।
      इस शुद्धि-मन्त्र से स्पष्ट है कि वह भगवान हरि हैं जिन्हें स्मरण कर लेने मात्र से ही मनुष्य शुद्ध और पवित्र हो जाता है। इसलिए, कोई व्यक्ति नीच जाति का (अपवित्र या पतित) ही क्यों न हो, जैसे ही भगवान का स्मरण करता है, वह उच्च-जाति की तरह पवित्र हो जाता है। हम जिस अछूत कहते हैं, वह जब फूल-अक्षत आदि ग्रहण कर मन्दिर की ओर चलता है, तो निश्चय ही उसे भगवान की याद आई है। भगवान की याद आने मात्र से ही वह स्वतः पवित्र हो जाता है। फिर, उसे मन्दिर में प्रवेश से कौन रोक सकता है?
      भगवान के स्मरण मात्र से पवित्र हो जाने का यह सिद्धान्त ऊँच-नीच के सारे भेद-भाव के ध्वस्त करता है, फिर भी यदि विभेद की नीति कायम है तो यह धर्म के सत्ताधीशों-मठाधीशों की तानाशाही है या उनका अज्ञान है।
 (3) ईश्वर सर्व-शक्तिमान है
      वेदादि सभी ग्रन्थों में ईश्वर को सर्वशक्तिमान बताया गया है। जो ईश्वर और उसकी शक्ति पर विश्वास करता है, उसे ही आस्तिक कहा जाता है और जो ईश्वर या उसकी शक्ति पर विश्वास नहीं करता उसे नास्तिक कहा जाता है--हिन्दू धर्म का यह सर्वभौम सिद्धान्त है, इसे स्मरण रखना आवश्यक है।
          अब, शक्ति के धनात्मक और ऋणात्मक दो भेद होते हैं, इसलिए शक्ति के दो प्रकार हैं—दैवी (कल्याणात्मक शक्तियाँ) और आसुरी/शैतानी (अकल्याणात्मक शक्तियाँ)। ईश्वर की शक्ति इन दोनों ही भेदों से परे और सर्वोपरि होती है, इसलिए उसकी शक्ति आसुरी-शक्ति से भी श्रेष्ठ है और दैवी-शक्ति से भी। यदि कोई व्यक्ति यह मानता है कि किसी अछूत से छुला जाने पर ईश्वर स्वयं अपवित्र हो गया है, इसे क्या नास्तिकता नहीं कहेंगे? इसलिए, जो व्यक्ति चाहे वह धर्म की सत्ता का कितना भी बड़ा मठाधीश क्यों न हो, किसी को अछूत बता कर यह मान लेता है कि उसके स्पर्श से भगवान स्वयं अपवित्र हो जाता है, वह स्वयं सबसे बड़ा नास्तिक है, अधर्मी है , क्योंकि ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है!
 (4) ईश्वर और पारस-पत्थर
      ईश्वर की तुलना हम पारस-पत्थर से कर सकते हैं। जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता है, वैसे ही ईश्वर का स्मरण-मात्र से अपवित्र भी पवित्र हो जाता है (जैसा कि शुद्धि-मन्त्र में कहा गया है)। अब, यदि पारसमणि ही लोहे के स्पर्श से शक्तिहीन हो जाए, तो वह कैसा पारसमणि?
 (5) अपवित्रता को दूर करने वाला वैद्य है ईश्वर
      यदि हम यह मानते हैं कि कोई मनुष्य अधूत है, पतित है, अपवित्र है तो उसका एकमात्र चिकित्सक स्वयं ईश्वर है। उसके मन्दिरों की स्थापना इन्हीं लोगों के लिये की गई है। ऐसी स्थिति में कोई आदमी यदि रोगी को चिकित्सक के पास जाने से रोकता है तो एक ओर तो रोगी (अपवित्र व्यक्ति) पर अत्याचार करता है और दूसरी ओर स्वयं ईश्वर के अधिकार को प्रतिबन्धित करता होता है। ऐसे लोगों को क्या घोर पापी नहीं कहा जायेगा?
      इसलिए, छूआ-छूत की भावना के पीछे नास्तिकता है, अधर्म है और पापाचार है। हमें अछूतों की शुद्धि की जरूरत नहीं, अपने आप की शुद्धि की जरूरत है, क्योंकि धार्मिक सिद्धान्तों के अनुरूप हम स्वयं पाप कर रहे हैं, नास्तकता स्वीकार किये हुए हैं और स्वयं को सबसे बड़ा धार्मिक बता रहे हैं।
(अगले अंक में भी)
रमाशंकर जमैयार

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

सैन्धव-सभ्यता के संस्थापक श्रीकृष्ण थे


       आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार भारतीय इतिहास का प्रारम्भ आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले सैन्धव-घाटी सभ्यता की स्थापना से हुआ था। लेकिन, पौराणिक-इतिहास के अनुसार भारतीय इतिहास इतना प्राचीन है कि इसे सनातन भी कहा जा सकता है। आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले तो कलियुग का आरम्भ हुआ था-- यदैव भगवान्विष्णोरंशो यातो दिवं द्विज। वसुदेवकुलोद्भूतस्तदैवात्रागतः कलिः।।(विष्णु-पुराण, 4/24/108)।। कलियुग से पूर्व द्वापर युग था। श्रीकृष्ण और कौरव-पाण्डव आदि द्वापर-कलि के सन्धिकाल के लोग थे। द्वापर से पूर्व त्रेता-काल था और उससे पूर्व सत्युग था। चार युगों की चौकड़ी को चतुर्युग कहा जाता है-कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिश्चैव चतुर्युगम (विष्णु पुराण, 1/3/15)। ऐसे इकहत्तर चतुर्युगों का एक मनव्तर होता है—चतुर्युगाणां संख्याता साधिका ह्येकसप्ततिः (वि.पु.,1/3/18)। वर्तमान मनवन्तर का नाम वैवस्वत मन्वन्तर है। इस मन्वतर के सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं। अट्ठाईसवाँ चतुर्युग चल रहा है। इस चतुर्युग के तीन युग भी बीत चुके हैं और यह कलियुग चल रहा है। अतः यह कह देना कि भारतीय इतिहास का प्रारम्भ सैन्धव घाटी सभ्यता से हुआ, षड़यन्त्रपूर्वक रचित विकृति है।
      सैन्धव-घाटी सभ्यता की अपनी वास्तविकता है। इसकी स्थापना भगवान श्रीकृष्ण के काल में हुई थी, इसलिए पाँच हजार वर्ष से अधिक पुरानी सभ्यता है। 1922 ईस्वी में हड़प्पा-आदि स्थलों का पुरातात्विक उत्खनन् किया गया था जिससे अनेक पुरातात्विक प्रमाण मिले।
       विदित हो कि यह विदेशी दासता का काल था। 1857 ईस्वी में महारानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, वीर कुँअर सिंह, मंगल पाँडे सरीखे राजघराने से लेकर अंग्रेजी सेना के सिपाहियों तक ने मिलकर राष्ट्रीय एकता का परचम लहराते हुए प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का युद्ध लड़ा था। भविष्य में ऐसी राष्ट्रीय एकता कभी न बन पाये, इस दृष्टि से अंग्रेजी-सत्ता ने भारतीय संस्कृति और इतिहास को विकृत करने का कार्य अंग्रेजी-सत्ता सम्पोषित इतिहासकारों को दिया।
      इन इतिहासकारों ने उत्खनन् से प्राप्त पुरातात्विक प्रमाणों की वास्तविक व्याख्या इस प्रकार है—
1.  सोलह की संख्या का सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से
      उत्खनन् से प्राप्त प्रमाणों से ज्ञात हुआ कि इस सभ्यता के लोगों ने 16 की संख्या को इकाई निर्धारण का आधार बना रखा था। 16 आनों का एक रूपया, 16 छटाँक का एक सेर आदि। सोलह की संख्या का यह आधार पिछले पाँच हजार साल से आजादी के बाद भी तबतक चलता रहा जब तक कि भारत की सरकार ने दशमलव-पद्धति नहीं लागू की।
       प्रश्न यह है कि लोगों ने 'सोलह' की संख्या को ऐसा महत्व क्यों दिया? भारतीय इतिहास की वास्तविकता को विकृत करने के लिये ये इतिहासकार इस विन्दु को गोल कर गये हैं। हम इस प्रश्न को पुनः खड़ा करते हैं।
      सोलह की संख्या का सम्बन्ध सीधे-सीधे भगवान श्रीकृष्ण से है। उनका जन्म चन्द्रवंश में हुआ था। कालयवन को अपना परिचय देते हुए श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि वे चन्द्रवंश के अन्तर्गत यदुकुल में वसुदेवजी के पुत्ररूप से उत्पन्न हुए हैं—वसुदेवस्य तनयो यदोर्वंशसमुद्भवः। विदित हो कि महाराज यदु चन्द्रवंशी थे।
      वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु आदि उत्पन्न सन्तान-परम्परा को सूर्यवंश कहा जाता है, जबकि वैवस्वत मनु की पुत्री इला से उत्पन्न सन्तति-परम्परा को चन्द्रवंश कहा जाता है। इला का विवाह चन्द्रमा के पुत्र बुध से हुआ था जिससे पुरुरवा का जन्म हुआ। इसलिए यह राजवंश चन्द्रवंशी कहलाया।
      भगवान श्रीकृष्ण चन्द्रवंशी थे। उन्हें पूर्ण-ब्रह्म का अवतार माना जाता है। चन्द्रमा की सोलह कलाएँ होती हैं, इसलिए कहा जाता है कि श्रीकृष्ण सोलहों कलाओं से पूर्ण थे। इस आधार पर सोलह की संख्या को महत्ता मिली। इससे प्रमाणित होता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता का निकटतम सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से था।
2.  श्री कृष्ण आनर्त्त-देश के शासक थे
      जिस क्षेत्र को सैन्धव-सभ्यता का क्षेत्र कहा जाता है, उसे पुराणों में आनर्त्त-देश कहा गया है। बलरामजी का विवाह जिस रेवती नामक जिस कन्या से हुआ था, उस कन्या के पिता रेवतजी ही उस देश के नरेश थे। रेवती से विवाह के कारण इस राज्य का उत्तराधिकार कृष्ण-बलराम को मिल गया।
      पूर्व में देश की राजधानी का नाम कुशस्थनी था। राजधानी का यह क्षेत्र समुद्र-तल में समा गया था, इसलिए श्रीकृष्ण ने राजधानी का वह क्षेत्र समुद्र से माँगकर वहाँ द्वारका नामक नगरी बसायी—कुशस्थली या तव भूप रम्या/पुरी पराद्भूदमरावतीव। सा द्वारका सम्प्रति तत्र चास्ते/स केशवांशो बलदेवनाम।।(विष्णु पुराण, 4/1/91)।।
3.  श्रीकृष्ण ने नागरी-सभ्यता की स्थापना की
      पुराणों में बताया गया है कि कालयवन के संहार के पूर्व ही भगवान ने द्वारका नगरी बसा ली थी और उग्रसेन समेत सभी यदुवंशियों को आनर्त्त-देश में स्थापित कर दिया था। उन्होंने अपनी राजधानी के लिए समुद्र से जो भूमि मांगी, वह समुद्र-गर्भ में समायी कुशस्थली ही थी। यहाँ उन्होंने नागरी-सभ्यता के अनुरूप न केवल अपनी राजधानी बनायी, बल्कि उसी के समान नागरी-सभ्यता का विस्तार अपने सम्पूर्ण राज्य-क्षेत्र में भी किया। श्रीमद्भागवत में विवरण है कि इसके लिये उन्होंने देवताओं के अभियन्ता विश्वकर्माजी की सेवाएँ लीं। यही कारण है कि समस्त सैन्धव-सभ्यता में नागरी-सभ्यता के प्रमाण मिलते हैं।
4.  देवी-देवता और उपासना-व्यवस्था
      श्रीकृष्ण स्वयं ही भगवान् विष्णु के साक्षात् अवतार थे। उन्होंने भगवद्गीता में स्वयं को बारम्बार ईश्वर रूप से प्रतिपादित किया है। अर्थात्, वह भगवान विष्णु के जीवित स्वरूप थे। भारतीय संस्कृति की परिपाटी है कि जीवित व्यक्ति की प्रतिमाएँ नहीं लगायी जातीं, इसलिए सैन्धव-सभ्यता में कहीं भगवान विष्णु की प्रतिमा नहीं मिलती।
      जिस श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था, ठीक उसी समय उनकी पराशक्ति ने यशोदा के गर्भ से अवतार लिया था। कृष्ण को यशोदा के पास और इस कन्या को कंस के कारागार में पहुँचा दिया गया था। कंस ने इस कन्या को ही देवकी की आठवीं सन्तान मान कर शिला पर पटक कर मारना चाहा तो उसके हाथों से छूटकर वह आकाश की दिशा में ऊपर जाकर देवीरूप से प्रकट हो गईं। उन्होंने कंस को बताया कि दुनिया का तारणहार और तुम्हारा संहारक जन्म ले चुका है। भगवती मनुष्यरूप में स्थित नहीं हुईं। उनके इस स्वरूप की उपासना सम्पूर्ण सैन्धव-सभ्यता में की जाती थी। इसलिए मातृ-शक्तियों की प्रतिमाएं सैन्धव-क्षेत्र में मिलीं।
      भगवान शिव और रुद्र के अनेकानेक रूपों की पूजा-उपासना सम्पूर्ण भारत में सदा से चलती आ रही है। चाहे कश्मीर में अमरनाथ हो या दक्षिण-तट पर रामेश्वरम, चाहे कैलाश पर्वत हो या काशी या उज्जैन।
5.  आनर्त्त-देश (सैन्धव-सभ्यता) का सर्वनाश  
       यदुवंशियों के विनाश की कथा पुराणों में वर्णित है—कृत्वा भारावतरणं भुवो हत्वाखिलानृपान्। शापवयाजेन विप्रणामुपसंहृतवान्कुलम्।।(वि.पु. 5/37/3)।। अर्थात् सम्पूर्ण पापी राजाओं (कुछ को स्वयं एवं कुछ का महाभारत युद्ध के म्ध्यम से) संहार  कर के उन्होंने पृथ्वी का भारावतरण किया और फिर ब्राह्मणों के शाप के कारण अपने कुल का भी उपसंहार कर दिया। यादवों की विशाल सेना, उसके सेनापति और सरदार आपस में ही उलझ कर एक दूसरे लड़कर मारे गये।
      फिर जिस दिन श्रीकृष्ण का देहावसान (परलोकगमन) हुआ, समुद्र की बाढ़ से आनर्त्त-देश का सम्पूर्ण क्षेत्र आप्लावित हो गया और द्वारका नगरी भी पुनः समुद्र में डूब गई—प्लावयामास तां शून्यां द्वारकं च महोदधिः।
      यह सम्पूर्ण पौराणिक विवरण एवं सैन्धव-सभ्यता के पुरातात्वि प्रमाण एक दूसरे से मेल खाते हैं। द्वारका-नगरी आज भी गुजरात समुद्र-तट पर है। वैज्ञानिकों ने समुद्र में डूबी द्वारका का भी पता लगा लिया है। सिन्धु नदी के क्षेत्र से लेकर गुजरात आदि का बहुत बड़ा क्षेत्र आनर्त्त-देश की सीमा के अन्तर्गत था। इसी क्षेत्र को आधुनिक इतिहासकारों ने सैन्धव-सभ्यता का नाम दिया है।
      अतएव सुनिश्चित रूप से प्रमाणित होता है कि भगवान श्रीकृष्ण द्वारा द्वारका-नगरी को केन्द्र बना कर जिस आनर्त्त-साम्राज्य की स्थापना की गई थी, वह वास्तव यादवी-सभ्यता का क्षेत्र था और इसे ही इतिहासकारों ने सैन्धव-सभ्यता का नाम दिया है।
रमाशंकर जमैयारआधुनिक इतिहासकारों के अनुसार भारतीय इतिहास का प्रारम्भ आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले सैन्धव-घाटी सभ्यता की स्थापना से हुआ था। लेकिन, पौराणिक-इतिहास के अनुसार भारतीय इतिहास इतना प्राचीन है कि इसे सनातन भी कहा जा सकता है। आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले तो कलियुग का आरम्भ हुआ था-- यदैव भगवान्विष्णोरंशो यातो दिवं द्विज। वसुदेवकुलोद्भूतस्तदैवात्रागतः कलिः।।(विष्णु-पुराण, 4/24/108)।। कलियुग से पूर्व द्वापर युग था। श्रीकृष्ण और कौरव-पाण्डव आदि द्वापर-कलि के सन्धिकाल के लोग थे। द्वापर से पूर्व त्रेता-काल था और उससे पूर्व सत्युग था। चार युगों की चौकड़ी को चतुर्युग कहा जाता है-कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिश्चैव चतुर्युगम (विष्णु पुराण, 1/3/15)। ऐसे इकहत्तर चतुर्युगों का एक मनव्तर होता है—चतुर्युगाणां संख्याता साधिका ह्येकसप्ततिः (वि.पु.,1/3/18)। वर्तमान मनवन्तर का नाम वैवस्वत मन्वन्तर है। इस मन्वतर के सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं। अट्ठाईसवाँ चतुर्युग चल रहा है। इस चतुर्युग के तीन युग भी बीत चुके हैं और यह कलियुग चल रहा है। अतः यह कह देना कि भारतीय इतिहास का प्रारम्भ सैन्धव घाटी सभ्यता से हुआ, षड़यन्त्रपूर्वक रचित विकृति है।
      सैन्धव-घाटी सभ्यता की अपनी वास्तविकता है। इसकी स्थापना भगवान श्रीकृष्ण के काल में हुई थी, इसलिए पाँच हजार वर्ष से अधिक पुरानी सभ्यता है। 1922 ईस्वी में हड़प्पा-आदि स्थलों का पुरातात्विक उत्खनन् किया गया था जिससे अनेक पुरातात्विक प्रमाण मिले।
       विदित हो कि यह विदेशी दासता का काल था। 1857 ईस्वी में महारानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, वीर कुँअर सिंह, मंगल पाँडे सरीखे राजघराने से लेकर अंग्रेजी सेना के सिपाहियों तक ने मिलकर राष्ट्रीय एकता का परचम लहराते हुए प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का युद्ध लड़ा था। भविष्य में ऐसी राष्ट्रीय एकता कभी न बन पाये, इस दृष्टि से अंग्रेजी-सत्ता ने भारतीय संस्कृति और इतिहास को विकृत करने का कार्य अंग्रेजी-सत्ता सम्पोषित इतिहासकारों को दिया।
      इन इतिहासकारों ने उत्खनन् से प्राप्त पुरातात्विक प्रमाणों की वास्तविक व्याख्या इस प्रकार है—
1.  सोलह की संख्या का सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से
      उत्खनन् से प्राप्त प्रमाणों से ज्ञात हुआ कि इस सभ्यता के लोगों ने 16 की संख्या को इकाई निर्धारण का आधार बना रखा था। 16 आनों का एक रूपया, 16 छटाँक का एक सेर आदि। सोलह की संख्या का यह आधार पिछले पाँच हजार साल से आजादी के बाद भी तबतक चलता रहा जब तक कि भारत की सरकार ने दशमलव-पद्धति नहीं लागू की।
       प्रश्न यह है कि लोगों ने 'सोलह' की संख्या को ऐसा महत्व क्यों दिया? भारतीय इतिहास की वास्तविकता को विकृत करने के लिये ये इतिहासकार इस विन्दु को गोल कर गये हैं। हम इस प्रश्न को पुनः खड़ा करते हैं।
      सोलह की संख्या का सम्बन्ध सीधे-सीधे भगवान श्रीकृष्ण से है। उनका जन्म चन्द्रवंश में हुआ था। कालयवन को अपना परिचय देते हुए श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि वे चन्द्रवंश के अन्तर्गत यदुकुल में वसुदेवजी के पुत्ररूप से उत्पन्न हुए हैं—वसुदेवस्य तनयो यदोर्वंशसमुद्भवः। विदित हो कि महाराज यदु चन्द्रवंशी थे।
      वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु आदि उत्पन्न सन्तान-परम्परा को सूर्यवंश कहा जाता है, जबकि वैवस्वत मनु की पुत्री इला से उत्पन्न सन्तति-परम्परा को चन्द्रवंश कहा जाता है। इला का विवाह चन्द्रमा के पुत्र बुध से हुआ था जिससे पुरुरवा का जन्म हुआ। इसलिए यह राजवंश चन्द्रवंशी कहलाया।
      भगवान श्रीकृष्ण चन्द्रवंशी थे। उन्हें पूर्ण-ब्रह्म का अवतार माना जाता है। चन्द्रमा की सोलह कलाएँ होती हैं, इसलिए कहा जाता है कि श्रीकृष्ण सोलहों कलाओं से पूर्ण थे। इस आधार पर सोलह की संख्या को महत्ता मिली। इससे प्रमाणित होता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता का निकटतम सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से था।
2.  श्री कृष्ण आनर्त्त-देश के शासक थे
      जिस क्षेत्र को सैन्धव-सभ्यता का क्षेत्र कहा जाता है, उसे पुराणों में आनर्त्त-देश कहा गया है। बलरामजी का विवाह जिस रेवती नामक जिस कन्या से हुआ था, उस कन्या के पिता रेवतजी ही उस देश के नरेश थे। रेवती से विवाह के कारण इस राज्य का उत्तराधिकार कृष्ण-बलराम को मिल गया।
      पूर्व में देश की राजधानी का नाम कुशस्थनी था। राजधानी का यह क्षेत्र समुद्र-तल में समा गया था, इसलिए श्रीकृष्ण ने राजधानी का वह क्षेत्र समुद्र से माँगकर वहाँ द्वारका नामक नगरी बसायी—कुशस्थली या तव भूप रम्या/पुरी पराद्भूदमरावतीव। सा द्वारका सम्प्रति तत्र चास्ते/स केशवांशो बलदेवनाम।।(विष्णु पुराण, 4/1/91)।।
3.  श्रीकृष्ण ने नागरी-सभ्यता की स्थापना की
      पुराणों में बताया गया है कि कालयवन के संहार के पूर्व ही भगवान ने द्वारका नगरी बसा ली थी और उग्रसेन समेत सभी यदुवंशियों को आनर्त्त-देश में स्थापित कर दिया था। उन्होंने अपनी राजधानी के लिए समुद्र से जो भूमि मांगी, वह समुद्र-गर्भ में समायी कुशस्थली ही थी। यहाँ उन्होंने नागरी-सभ्यता के अनुरूप न केवल अपनी राजधानी बनायी, बल्कि उसी के समान नागरी-सभ्यता का विस्तार अपने सम्पूर्ण राज्य-क्षेत्र में भी किया। श्रीमद्भागवत में विवरण है कि इसके लिये उन्होंने देवताओं के अभियन्ता विश्वकर्माजी की सेवाएँ लीं। यही कारण है कि समस्त सैन्धव-सभ्यता में नागरी-सभ्यता के प्रमाण मिलते हैं।
4.  देवी-देवता और उपासना-व्यवस्था
      श्रीकृष्ण स्वयं ही भगवान् विष्णु के साक्षात् अवतार थे। उन्होंने भगवद्गीता में स्वयं को बारम्बार ईश्वर रूप से प्रतिपादित किया है। अर्थात्, वह भगवान विष्णु के जीवित स्वरूप थे। भारतीय संस्कृति की परिपाटी है कि जीवित व्यक्ति की प्रतिमाएँ नहीं लगायी जातीं, इसलिए सैन्धव-सभ्यता में कहीं भगवान विष्णु की प्रतिमा नहीं मिलती।
      जिस श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था, ठीक उसी समय उनकी पराशक्ति ने यशोदा के गर्भ से अवतार लिया था। कृष्ण को यशोदा के पास और इस कन्या को कंस के कारागार में पहुँचा दिया गया था। कंस ने इस कन्या को ही देवकी की आठवीं सन्तान मान कर शिला पर पटक कर मारना चाहा तो उसके हाथों से छूटकर वह आकाश की दिशा में ऊपर जाकर देवीरूप से प्रकट हो गईं। उन्होंने कंस को बताया कि दुनिया का तारणहार और तुम्हारा संहारक जन्म ले चुका है। भगवती मनुष्यरूप में स्थित नहीं हुईं। उनके इस स्वरूप की उपासना सम्पूर्ण सैन्धव-सभ्यता में की जाती थी। इसलिए मातृ-शक्तियों की प्रतिमाएं सैन्धव-क्षेत्र में मिलीं।
      भगवान शिव और रुद्र के अनेकानेक रूपों की पूजा-उपासना सम्पूर्ण भारत में सदा से चलती आ रही है। चाहे कश्मीर में अमरनाथ हो या दक्षिण-तट पर रामेश्वरम, चाहे कैलाश पर्वत हो या काशी या उज्जैन।
5.  आनर्त्त-देश (सैन्धव-सभ्यता) का सर्वनाश  
       यदुवंशियों के विनाश की कथा पुराणों में वर्णित है—कृत्वा भारावतरणं भुवो हत्वाखिलानृपान्। शापवयाजेन विप्रणामुपसंहृतवान्कुलम्।।(वि.पु. 5/37/3)।। अर्थात् सम्पूर्ण पापी राजाओं (कुछ को स्वयं एवं कुछ का महाभारत युद्ध के म्ध्यम से) संहार  कर के उन्होंने पृथ्वी का भारावतरण किया और फिर ब्राह्मणों के शाप के कारण अपने कुल का भी उपसंहार कर दिया। यादवों की विशाल सेना, उसके सेनापति और सरदार आपस में ही उलझ कर एक दूसरे लड़कर मारे गये।
      फिर जिस दिन श्रीकृष्ण का देहावसान (परलोकगमन) हुआ, समुद्र की बाढ़ से आनर्त्त-देश का सम्पूर्ण क्षेत्र आप्लावित हो गया और द्वारका नगरी भी पुनः समुद्र में डूब गई—प्लावयामास तां शून्यां द्वारकं च महोदधिः।
      यह सम्पूर्ण पौराणिक विवरण एवं सैन्धव-सभ्यता के पुरातात्वि प्रमाण एक दूसरे से मेल खाते हैं। द्वारका-नगरी आज भी गुजरात समुद्र-तट पर है। वैज्ञानिकों ने समुद्र में डूबी द्वारका का भी पता लगा लिया है। सिन्धु नदी के क्षेत्र से लेकर गुजरात आदि का बहुत बड़ा क्षेत्र आनर्त्त-देश की सीमा के अन्तर्गत था। इसी क्षेत्र को आधुनिक इतिहासकारों ने सैन्धव-सभ्यता का नाम दिया है।
      अतएव सुनिश्चित रूप से प्रमाणित होता है कि भगवान श्रीकृष्ण द्वारा द्वारका-नगरी को केन्द्र बना कर जिस आनर्त्त-साम्राज्य की स्थापना की गई थी, वह वास्तव यादवी-सभ्यता का क्षेत्र था और इसे ही इतिहासकारों ने सैन्धव-सभ्यता का नाम दिया है।
रमाशंकर जमैयार 

बुधवार, 17 अगस्त 2011

विश्वामित्र और मेनका-एक विश्लेषणात्मक अध्ययन


ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका
भारतीय अध्यात्म नारी को भोग्या नहीं, शक्तिरूप बताता है, चाहे वह प्रेमिका हो या पत्नी।
भारत के ऐतिहासिक गाथाओं में चाहे उसे आधुनिक काल के उपन्यासकार आचार्य चतुरसेन ने लिखा हो या पुराणकारों ने, पत्नी या प्रेमिका के रूप में नारी का चित्रण भोग्या के रूप में नहीं, बल्कि 'शक्ति-स्वरूपा' के रूप में किया गया है। आचार्य चतुरसेन के चित्रलेखा एवं आम्रपाली उपन्यासों में भी यही दीखता है। ये नायिकाएँ अपने समय के महान् योगियों के समकक्ष ही नहीं, कभी-कभी उनसे श्रेष्ठ दिखाई देती हैं। उनके रूप-सौन्दर्य और भोग-वैभव में भोगवादी कालिमा नहीं, आध्यात्मिक चाँदनी बिखरी मिलती है। इसके विपरीत सीजर और क्लियोपेट्रा की यूरोपियन गाथाओं में नारी की शारीरिक मादकता और भोग्या का स्वरूप झलकता है जिसका उपयोग वह अपने लाभ के लिए करती है।
पाश्चात्य संस्कृति शारीरिक आधार पर सेक्स की पहचान शारीरिक भूख के रूप में करती है। इसके ठीक विपरीत, भारतीय संस्कृति इस सिद्धान्त को सिरे से नकारती है। उसके पास आधार है वैदिक विज्ञान का जिसमें शरीर और आत्मा की प्रकृति का वैज्ञानिक विवरण शामिल है। इस विषय पर हम ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की प्रेम-गाथा के माध्यम से विवकण प्रस्तुत करना चाहेंगे।
आधुनिक इतिहासकारों ने पुराणों से चक्रवर्त्ती सम्राट भरत का प्रसंग उठाया है और बताया है कि इन्हीं के नाम पर इस देश का नाम 'भारत' पड़ा। इनके पिता पुरुवंशी राजा दुष्यन्त थे और माता थीं शकुन्तला। इसलिए, शकुन्तला का सम्बन्ध  भारतीय इतिहास से है। पुराणों में बताया गया है कि महाराज दुष्यन्त ने शकुन्तला की रूप-कान्ति पर रीझकर उनसे प्रेमविवाह किया था। वह मेनका नामक अप्सरा की पुत्री थीं, इसलिए स्वाभाविकरूप से परम सुन्दरी थीं। उनकी पहली मुलाकात वनों में स्थित कण्व ऋषि के आश्रम के निकट हुआ था। परिचय पूछने पर शकुन्तला ने उन्हें बताया कि वह विश्वामित्रजी की पुत्री है और उसकी माता मेनका ने उन्हें यहाँ (ऋषि आश्रम) में छोड़ रखा है—विश्वामित्रात्मजैवाहं त्यक्ता मेनकया वने (श्रीमद्भागवद, 9/20/13)।
इसप्रकार, ऋषि विश्वामित्र और मेनकाimages (3).jpg का सम्बन्ध भी भारतीय इतिहास से है।

भारत को लोग विश्वामित्र को एक 'ऋषि' के रूप में जानते हैं। वैदिक विज्ञान में ऋषि शब्द का विशेष अर्थ है। पहली बात तो यह कि उन्हें ही वैदिक-ऋचाओं का 'द्रष्टा' माना जाता है और दूसरी बात यह कि उन्हें 'अमर' बताया जाता है। विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्माजी ने आरम्भ में नौ मानस-पुत्रों को उत्पन्न किया--अथान्यान्मानसान्पुत्रान्सदृशानात्मनोऽसृजतम (वि.पु.,1/7/4)। इनमें वशिष्ठ, भृगु, अत्रि आदि के नाम पौराणिक आख्यानों में बराबर आते हैं। ये ब्रह्मा के पुत्र होने के कारण अमर थे।
परन्तु, विश्वामित्र इनसे भिन्न थे। उनका जन्म मानव-वंश में हुआ था। वे जाह्नु-वंश के सम्राट कुशाम्ब के पौत्र और गाधि के पुत्र थे। बाद में उन्होंने अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त कर वीर क्षत्रिय की भाँति राज्य भी किया। विवाहकर पुत्रादि भी उत्पन्न किये।
फिर भी, विश्वामित्र की गणना पूर्वोक्त अमर ऋषियों की श्रेणी में की जाती है। इन्हें उन सप्तर्षियों में से एक माना गया है जो ध्रुव-तारे की परिक्रमा करने वाले सप्तर्षि संज्ञक तारामंडल के अधिपति हैं—वसिष्ठः काश्यपोऽथात्रिर्जमदग्निस्सगौतमः। विश्वामित्रभरद्वाजौ सप्त सप्तर्षयोऽभवन।।(विष्णु पुराण, 3/1/32)।। तात्पर्य यह है कि वे मानव-जाति के उन विभूतियों में से है जिन्होंने मनुष्य-योनि में जन्म लेकर भी अमरत्व और ऋषित्व प्राप्त किया।
अमरत्व और ऋषित्व प्राप्त करने वाले विश्वामित्र निश्चय ही महान तपस्वी एवं सिद्ध-योगी थे। तपस्या के क्रम में ही उनकी मुलाकात अप्सरा मेनका से हुई। फिर, मेनका की याचना पर उन्होंने उसे सन्तान-सुख प्रदान किया जिसके फलस्वरूप शकुन्तला का जन्म हुआ।
भारतीय संस्कृति में जहाँ अप्सराओं को स्त्री-सौन्दर्य का सबसे सुन्दर रूप माना जाता है, वहीं अन्यान्य संस्कृतियों के ग्रन्थों में भी परियों की कहानी आती है और इन्हें भी स्त्री-सौन्दर्य का सबसे सुन्दर रूप माना गया है। इन्हें मनुष्य-लोक से भिन्न परीलोक का निवासी माना गया है। हातिमताई की कहानियों में ऐसी कुछ परियों की चर्चा है। कुछ लोग इन कहानियों को गल्प-कथा मानते हैं। लेकिन, वैज्ञानिकों को उड़न-तश्तिरयों और एलियन्स के प्रमाण मिल चुके हैं और यह स्वीकार किया जा चुका है कि एलियन्स (परलोकवासी) भी हैं जिनका विज्ञान हमारे विज्ञान से बहुत आगे है।
भारतीय ग्रन्थों में अप्सराओं को देवराज इन्द्र के स्वर्गलोक का निवासी बताया गया है और उन्हें देवराज इन्द्र के अधीन माना गया है। कहा जाता है कि देवराज इन्द्र द्वारा उनका उपयोग कई बार तपस्वियों की तपस्या को भंग करने के लिये भी किया जाता है, क्योंकि उनके रूप-सौन्दर्य का आकर्षण अत्यन्त प्रबल होता है—धरती की नारियों की तुलना में बहुत ही अधिक। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि क्या इन्द्र ने मेनका को भी विश्वामित्र की तपस्या भंग करने को भेजा था?
इस सम्बन्ध में स्पष्टरूप से कहा जा सकता है कि इन्द्र को विश्वामित्र से किसी प्रकार की ईष्या नहीं थी, क्योंकि वे तो स्वयं देवराज इन्द्र के पुत्र थे। इस सम्बन्ध में विष्णु पुराण में बताया गया है कि विश्वामित्रजी के पितामह .कुशाम्ब की इच्छा थी कि उसका इन्द्र के सामान प्रतापी एक पुत्र उत्पन्न हो। इस निमित्त उसने घोर तप किया—तेषां कुशाम्बः शक्रतुल्यो मे पुत्रो भवेदिति तपश्चकार (वि.पु., 4/7/9)। देवराज को भय हुआ कि कुशाम्ब के पुत्ररूप से कहीं कोई दूसरा इन्द्र न उत्पन्न हो जाए, इसलिए स्वयं इन्द्र ही उसके पुत्ररूप से अवतरित हो गये और गाधि के नाम से जाने गये जो विश्वामित्र के पिता थे।
अतः, देवराज इन्द्र प्रकारान्तर से विश्वामित्रजी के पिता थे। वे उनकी तपस्या की सिद्धि चाहते थे। इसलिये उन्होंने  योगसिद्धि में उनकी सहायिका बनाकर उनके पास भेजा।
हर सामान्य व्यक्ति स्त्री के रूप-सौन्दर्य को भोग की वस्तु तो मान सकता है, लेकिन तपस्या में सिद्धि का कारक मानने को तैयार नहीं होगा। परन्तु, योग और अध्यात्म के विज्ञान में स्त्री को सिद्धि का कारक बताया गया है—
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण जीवात्मा के सम्बन्ध में कहते हैं—सर्वयोनिषु कौन्तेय मूत्तर्यः सम्भवन्ति या। तासां ब्रह्म मह्द्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।(14/4)।। वे अर्जुन से कहते हैं-हे अर्जुन (कौन्तेय)! प्रत्येक योनि की जो वाह्याकृति (मूर्त्ति) होती है (सम्भवन्ति वा)। वह महद्-ब्रह्म (ब्रह्म महद्) का बलात्मक घेरा है (जिसे पराशक्ति या माया के नाम से भी जाना जाता है।  उस वाह्याकृति (वाह्य-परिच्छेद) की बीज-शक्तिरूप से (बीजप्रदः) मैं (अहं) स्वयं स्थित हूँ, इसलिए सबका पिता हूँ।
विदित हो कि बीजशक्ति का अर्थ है केन्द्र-शक्ति। अर्थात् केन्द्र पर स्थित विन्दुरूप शक्ति। श्रीकृष्ण बताते हैं कि जीवात्मा के केन्द्र पर परब्रह्म विन्दुरूप नित्य शक्ति है। इसे प्रजापति भी कहते हैं। जीवात्मा के ही सन्दर्भ में बृहदारण्यकोपनिषद (5/9/1) में बताया गया है कि यह विन्दुरूप 'ब्रह्म' अकेला नहीं रहना चाहता ( स नैव रेमे तस्मादेकाकी)। एक से दो होने की इच्छा से (स द्वितीयमैच्छत्) वह चने की दाल की तरह आधा-आधा होकर दो भागों में विभाजित हो जाता है। इनमें से एक स्त्रीरूप है और दूसरा पुरुषरूप (स्त्रीपुमांसौ संपरिष्वक्तौ)। यह स्त्रीरूपा-भाग ही योग-शास्त्रों में कुण्डलिनी-शक्ति के नाम से प्रसिद्ध है और पुरुषरूप-भाग को सदाशिव नाम से जाना जाता है। ये दोनों एक ही शक्ति के दो स्वरूप हैं, परस्पर पति-पत्नी रूप हैं, इसलिए इन दोनों में घोर आकर्षण रहता है। इन दोनों को परस्पर मिलने से बाधित करने के लिए ही मानव-योनि में षटचक्रों की व्यवस्था है। षटचक्रों में सबसे नीचे मूलाधार चक्र है जो कुण्डलिनी-शक्ति का स्थान है और सबसे ऊपर सहस्रार चक्र है जो सदाशिव का स्थान है।
यह स्थिति स्त्री और पुरुष, दोनों में ही समानरूप से रहती है। फिर भी, दोनों में स्पष्ट अन्तर यह है कि स्त्री कुण्डलिनी-प्रधाना होती है और पुरुष सदाशिव-प्रधान होता है। हम यह समझते हैं कि पुरुष के शरीर को देखकर स्त्री और स्त्री के शरीर को देखकर पुरुष आकर्षित होता है, लेकिन यह वाह्य-भ्रम भर है। यहाँ तो पुरुष का सदाशिव स्त्री की कुण्डलिनी-शक्ति के प्रति तथा स्त्री की कुण्डलिनी-शक्ति पुरुष के सदाशिव के प्रति आसक्ति व्यक्त करता है।
योग-साधना में कुण्डलिनी-शक्ति को जाग्रत किया जाता है। इससे वह एक-एक कर ऊपर के चक्रों का भेदन करते (पार करते) हुए सहस्रार-चक्र स्थित सदाशिव से जा मिलती है और उसके साथ संयुक्त हो जाती है। फिर वे दोनों हृद्य-स्थित अनहद-चक्र पर आकर स्थित हो जाते हैं। यही योग की पूर्णता है। इसी स्थिति को मोक्ष कहा जाता है। यहाँ ब्रह्म अपने पूर्ण-स्वरूप में स्थित रहता है, इसलिए इस स्थिति का योग-विद्या द्वारा व्यावहारिक ज्ञान ही ब्रह्म-ज्ञान है।
विश्वामित्र और अप्सरा मेनका
विश्वामित्रजी ब्रह्म-ज्ञान अर्थात् मोक्ष-प्राप्ति की ही साधना कर रहे थे। इसमें पहले ध्यान को एकाग्र कर मन की चंचलता को दूर किया जाता है, क्योंकि चंचलता-विहीन स्थिति मे ही मन योग का साधन बन पाता है। वह कुण्डलिनी-शक्ति-के गिर्द भ्रमर की तरह उसके चारों ओर घूमने लगता है जिससे कुण्डलिनी-शक्ति जाग्रत होने लगती है। विश्वामित्र जी को इस स्थिति तक पहुँचने में ही बाधा हो रही थी। वे क्षत्रिय-वंश के थे, इसलिए उनमें क्रोध अधिक था।
ऐसे समय में उन्हें एक ऐसी वाह्य-शक्ति की आवश्यकता थी जो एक झटके से उनके ध्यान को एकग्र कर उनके मन की चंचलता भी दूर कर दे और साथ ही साथ उनकी कुण्डलिनी-शक्ति को भी जाग्रत कर दे। ये दोनों ही शक्तियाँ नारी-सौन्दर्य में है। यह व्यावहारिक तथ्य है कि कोई सुन्दरी जब समक्ष आ जाती है तो आँखें उसी पर जम जाती हैं। केवल आँखें ही नहीं, पूरा ध्यान ही उस पर एकाग्र हो जाता है। ध्यान की एकाग्रता का आलम यह होता है कि कभी-कभी आस-पास के माहौल का भान भी नहीं रहता।
मेनका स्वर्ग की अप्सरा थी, किसी भी मानवी की तुलना में उसके रूप-सौन्दर्य का आकर्षण प्रबलततर था। इसके कारण विश्वामित्र को उसके रूप-सौन्दर्य के ध्यान से ही एकाग्रता की प्राप्ति हो गई—मन एकाग्र हो गया। नारी होने के कारण वह कुण्डलिनी-प्रधाना थी और अप्सरा होने के कारण इसरूप में भी प्रबलतम थी। फलस्वरूप, विश्वामित्रजी शीघ्र ही न केवल ध्यानस्थ हो पाये, बल्कि अपनी कुण्डलिनी-शक्ति को भी जाग्रत कर पाये। फलस्वरूप उन्हें शीघ्र ही कुण्डलिनी-शक्ति और सदाशिव के अनहद-चक्र पर स्थित होने का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त हो गया और उनके योग की सिद्धि हो गई।
इनकी योग-सिद्धि में सहायिका बनी मेनका ने विश्वामित्रजी का आध्यात्मिक उपकार किया था। इसके एवज में वह उनसे कुछ भी मांग पाने के योग्य थी। उसने विश्वामित्र को निरन्तर अपनी स्मृति में बनाये रखने के लिए उनसे सन्तान की मांग की। इससे मेनका ने शकुन्तला को पुत्रीरूप से जन्म दिया।
रमाशंकर जमैयार