मंगलवार, 12 सितंबर 2023

चिदानंदरूपं शिवोहम्


पिछले विडियो ‘सत्यम् शविवम् सुन्दरम् में चर्चा थी कि ईश्वर ही मौलिक ‘सत्य है। उसका मौलिक गुण है कि वह सत्य है और इसकारण शिव अर्थात् कल्याणकारी है। साथ ही, वह अनुभूति योग्य भी है। उसकी अनुभूति आनन्द के रूप में होती है।

इसकी पूर्ण व्यख्या भाररतीय ज्ञान-परम्परा (दर्शन) के माध्यम से ही सम्भव है। हम दर्शन और साईंस की परस्पर भिन्नता की चर्चा अगले किसी वीडियो में करेंगे। फिर भी यह समझना आवश्यक है कि साईंस का ज्ञानात्मक आधार ‘भौतिकता (पदार्थ-आधारित) है जबकि दर्शन का ज्ञानात्मक आधार ‘दिव्यता (ऊर्जा-आधारित) है।

साथ ही यह भी समझना अभीष्ट है कि साईंस के आधार पर ‘अनुभूति के अन्तर्गत इन्द्रिय और मस्तिष्क (बुद्धि) की क्रियाएँ ही शामिल रहती हैं जबकि दर्शन के आधार पर इसमें इन्द्रिय और मस्तिष्क के साथ-साथ ‘मन की क्रिया भी शामिल होती है।

वैसे, अपनी प्रगति के क्रम में साईंस भी मन को स्वीकार कर चुका है, परन्तु जो व्याख्या हमें प्राप्त होती है, वह अपूर्ण है।

 इसके लिये हम ध्यान और मन पर विचार कर सकते हैं। यह पाया जाता है कि जिस वस्तु पर हमारा ध्यान बना रहता है, उसकी अनुभूति हो जाती है। लेकिन, जिस वस्तु पर हमारा ध्यान नहीं होता, उसकी अनुभूति नहीं हो पाती। इसका अर्थ यह है कि ध्यान वास्तव में मन की ही ‘शक्ति है जिसके जरिये मन इन्द्रियों पर पनना नियन्त्रण बनाये रखता है। इस तथ्य तो भारतीय दर्शन के अनुकूल है। यह ‘ध्यान एक वास्तविकता है और चूँकि यह भौतिक सत्ता नहीं बल्कि शक्ति है, इसलिए साईंस इसकी वैज्ञानिक व्याख्या नहीं कर पाया है। फिर भी, मनोविज्ञान के अन्तर्ग इसे स्वीकार किया जाता है।

भारतीय दर्शन बताता है कि मन को एकाग्र करने से उसकी ध्यान-शक्ति क्रमिकरूप से जाग्रत होती जाती है। अतः मन (चित्त) की दो अवस्था होती है—चंचलावस्था और शान्ताव्सथा। जब मन की ध्यान-शक्ति पूर्णतः जाग्रत होती है तो मन की उस अवस्था को उसकी शांत-अवस्था कहा जाता है। मन की इस शांत अवस्था को ही उसका मौलिक-स्वरूप कहा गया है।

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें